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में सन्तुलन स्थापित किया जा सकता है ।
समवृत्ति श्वास प्रेक्षा की विधि इस प्रकार है--बाएं नथुने से श्वास लें, दाएं से निकालें । फिर दांयें से लें और बांयें से निकाले। चित्त और श्वास साथ-साथ चले। श्वास भीतर, चित्त भीतर, श्वास बाहर, चित्त बाहर ।" समवृत्ति श्वासप्रेक्षा के लाभ
समवृत्ति श्वास से नाड़ी-संस्थान का शोधन होता है, ज्ञान-शक्ति विकसित होती है और अतीन्द्रिय ज्ञान की संभावनाओं का द्वार खुलता है।" चैतन्य-केंद्र-प्रेक्षा
वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से हमारे शरीर में दो प्रकार की ग्रंथियां हैं-वाहिनी युक्त और वाहिनी रहित । ये वाहिनी रहित ग्रंथियां अन्तःस्रावी होती हैं। इन्हें 'एण्डोक्राइन-ग्लण्ड्स, कहा जाता है। पीनियल, पिच्यूटरी, थायराइड, पेराथायराइड, थाइमस, एड्रीनल, गोनाड्स और स्प्लीन ... ये सभी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां हैं। इनके स्राव 'हार्मोन' कहलाते हैं । हमारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक प्रवृत्तियों का संचालन इन ग्रन्थियों के द्वारा उत्पन्न स्रावों के माध्यम से होता है। हमारी सभी बैतन्य क्रियाओं का संचालन इस ग्रंथि-तंत्र के द्वारा होता है। अतः उन ग्रन्थियों को चैतन्य-केंद्र की संज्ञा दी गयी है।" चैतन्य केन्द्रों के प्रकार एवं स्थान नाम
स्थान १. शक्तिकेंद्र
पृष्ठ रज्जु के नीचे का छोर २. स्वास्थ्यकेंद्र
पेड़ का स्थान ३. तेजस्-केंद्र
नाभि ४. आनंद-केंद्र
हृदय के पास जहां गड्ढा पड़ता है। ५. विशुद्धि-केंद्र
कंठ के मध्य भाग में ६. ब्रह्मकेंद्र
जिह्वान ७. प्राणकेंद्र
नासान ८. चाक्षुष-केंद्र
आंखों के भीतर ९. अप्रमाद-केंद्र
कानों के भीतर १०. दर्शन-केंद्र
भृकुटियों के मध्य में ११. ज्योति-केंद्र
ललाट का मध्य भाग १२. शांति-केंद्र
मस्तिष्क का अग्रभाग १३. शान केंद्र
सिर के ऊपर का भाग।" चैतन्यकेन्द्र-प्रेक्षा निष्पत्ति
मानसिक संतुलन । आदतों का परिवर्तन ।" अन्तःकरण का परिवर्तन । अवधिज्ञान की प्राप्ति ।१५ चैतन्यकेंद्रों का निर्मलीकरण ।" आनंद-केंद्र का जागरण ।" शक्ति का जागरण । " संक्षेप में प्रेक्षा-ध्यान समाधि तक पहुंचने की प्रक्रिया है।
तुलसी प्रज्ञा
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