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मांसा
सूक्ष्मता का स्पर्श किया है। कर्मों के आठ प्रकार बतलाये गये हैं। यह विभाजन कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ संबंध स्थापित होने के बाद की स्थिति है। उसके पूर्व वे सभी एक रूप कर्म-वर्णना के पुद्गल के रूप में ही जाने जाते हैं इस बात को सिद्धसेन दिवाकर ने स्पष्ट करते हुए लिखा है -
एकस्मिन् प्रत्ययेऽष्टाग कर्मसामर्थ्यसंभवात् ।
___ नानात्वंकपरिणामसिद्धिरष्टौ तु शक्तितः ।। २२ कर्म के साथ-साथ कषाय, आस्रव", संवर, क्षय, क्षीयमाण२५ और उदीरणा, व्यय आदि को समझने के लिए कर्मवाद को ठीक से समझने की आवश्यकता रहती है--
- नेहारम्भणचारोऽस्ति केवलोदीरणव्ययो ।२६६ ज्ञान मीमांसा
प्रस्तुत 'द्वात्रिंशिका' में ज्ञान-विषयक चर्चा प्रसङ्गवश की गई है । इसलिये संपूर्ण जैनाभिमत ज्ञान-विभाग की स्पष्टता के अभाव में अवधि ज्ञान, केवलज्ञान आदि की चर्चा जिनका विवेचन 'द्वात्रिंशिका' में हुआ है; सहजतया बोधगम्य नहीं हो पाता है।
चक्षुर्वद्विषयख्यातिरवधिज्ञानकेवले ।
शेषवृतिविशेषात्तु ते मते ज्ञानदर्शने ॥२७ इन्द्रिय-प्रत्यक्ष", आत्मप्रत्यक्ष", सम्यग्दर्शन", तत्त्व-ज्ञान" आदि ज्ञान मीमांसात्मक विषयों का उल्लेख "द्वात्रिशिका" में देखा जा सकता है। निवृतिवाद
भारत में दो परम्पराएं प्राचीन काल से चली आ रही हैं, वे हैं-ब्राह्मणपरम्परा व श्रमण-परम्परा । प्रथम का बल कर्मकाण्ड पर अधिक रहा है और द्वितीय का निवृत्तिवाद पर।
श्रमण-परम्परा ने जागतिक प्रपञ्च के प्रति उदासीन रहने का, वैराग्यवृद्धि का उपदेश दिया । इस संदर्भ में 'ध्यान-द्वात्रिशिका' में वैराग्य की जितनी मर्मस्पर्शी व यथार्थता का अवलम्बन करने वाली परिभाषा की गई है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है
न दोषदर्शनाच्छुद्धं वैराग्यं विषयात्मसु ।
मृदुप्रवृत्युपायोऽयं तत्वज्ञानं परं हितम् ॥२ विषय एवं शरीर आदि के दोष दर्शन मात्र से शुद्ध वैराग्य संभव नहीं है। यह तो एक प्रारंभिक सरल उपाय मात्र है । वास्तविक आत्महित तो तत्त्व-ज्ञान या सम्यग्दर्शन से ही संभव है।
आत्मस्थ व्यक्ति को किसी प्रकार का निर्देश अपेक्षित नहीं होता है जो आचरण अज्ञानी व्यक्ति के लिए बन्धन का कार्य करता है। उसे संसारचक्र में फंसाए रखता है। वही आचरण आत्मार्थी के लिए बन्धनमुक्ति का उपाय (साधन) बन जाता है। यह निति की ओर बढ़ने वाले साधक की स्थिति है--- २००
तुलसी प्रज्ञा
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