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तत्क्षीयमाणं क्षीणं तु चरमाभ्युदयक्षणे ।
कैवल्यकारणं पंककललाम्बुप्रसादवत् ।।१२ ध्यान की चरमावस्था जहां केवल ध्येय विषयक सत्ता की ही उपलब्धि होती रहती है अन्य सभी प्रपञ्च समाप्त हो जाते हैं। पतञ्जलि ने इसी को समाधि कहा है--
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।" सिद्धसेन दिवाकर समाधि शब्द का उल्लेख तो नहीं करते हैं किन्तु ध्यान की उच्च स्थिति का चित्रण पतञ्जलि के इसी सूत्र की भाषा में करते हैं --
सर्वप्रपञ्चोपरतः, शिवोऽनन्यपरायणः ।
सद्भावमात्रप्रज्ञप्ति निरूपाख्योऽथ निर्वृतः ॥ दर्शन
___ नाम है 'ध्यान-द्वात्रिशिका' और पढ़ते-पढ़ते अनुभूत होता है कि ध्यान छूट गया है और दर्शन की चर्चा प्रारंभ हो गई है। गहराई में जाने पर ज्ञात होता है कि ध्यान से ही प्रकट होता है चिन्तन, ज्ञान व दर्शन। ध्यान की गहराइयों में डूबे बिना न सत्य उपलब्ध होता है और न आनन्द । दर्शन और कुछ भी नहीं सत्य का ही एक प्रकार है। दर्शन सत्य की खोज का एक मार्ग है, ध्यान सत्य के साक्षात्कार का एक उपाय है।
दर्शन ध्यान-द्वात्रिंशिका में पदे-पदे परिलक्षित होता है। दार्शनिक शब्दावली के स्पष्टीकरण के बिना व दार्शनिक मन्तव्यों को समझे बिना श्लोक के हार्द को समझना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। जैन-दर्शन के साथ-साथ बौद्ध, न्याय, वैशषिक, सांख्य, वेदान्त आदि की मान्यताओं का भी इसमें संस्पर्श हुआ है।
____ आत्म तत्त्व की प्रस्थापना में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि के एकान्तिक मतों का निराकरण किया गया है । और "मैं हूं' इस स्वानुभूति को आत्मा के अस्तित्व का प्रबल प्रमाण बताया है
नाहस्मीत्यसद्भावे दुःखोद्वेगहितैषिता ।
____न नित्यानित्यनानक्यकर्ताद्यकान्तपक्षतः ॥१५ आत्मवाद व कारणवाद की चर्चा करते हुए उस प्रसंग में बौद्ध-नैरात्म्यवाद एवं प्रतीत्यसमुत्पाद की गंभीरता से समीक्षा की गई है।"
इन्द्रिय प्रत्यक्ष का प्रामाण्य", आलम्बन व निमित्त कारण की चर्चा, जाति, लिंग, परिणाम, काल, हेतुवाद आदि का उल्लेख तथा द्रव्य-पर्याय आदि दार्शनिक बिन्दुओं का यथास्थान प्रयोग गूढ़ता पैदा करने वाला है--
द्रव्यपर्यायसंकल्पश्चेतस्तद्व्यञ्जकं वचः ।
तद्यथा यच्च यावच्च निरवद्येति योजना ॥" कर्मवाद
जागतिक विचित्रता व कर्मफल की व्यवस्था हेतु कर्म (अदृष्ट) की सत्ता को प्रायः सभी दर्शनों ने स्वीकार किया है। जैन-दर्शन ने कर्म की विवेचना में अति
खण्ड २०, बंक ३
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