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________________ सिद्धि की गई है । 'मैं हूं' यह वर्तमानिक स्वानुभूति ही आत्मा के अस्तित्व की सबल परिचायक है नाहमस्मीत्यसद्भावे दुःखोद्वेगहित षिता । न नित्यानित्यनानक्यकर्ताद्यकान्तपक्षतः ।।' इसमें मध्य युग की योग धारा से प्रभावित योग संबंधी शब्दावली के साथ प्राचीन जैन ध्यान के तत्त्वों को प्रतिपादित किया गया है । उदाहरण-स्वरूप पतंजलि ने आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि को ध्यान के प्रमुख अंगों के रूप में प्रस्तुत किया है । "ध्यान-द्वात्रिंशिका' के अनेक श्लोकों में चाहेअनचाहे स्पष्ट रूप से इन अंगों की चर्चा की गई है। जिसकी स्पष्टता हेतु "पातञ्जलयोग-दर्शन" का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है । प्राणायाम को चित्त अर्थात् मानसिक व शारीरिक जड़ता का निवारण करने वाला तथा अनेक विध लब्धियों का कारण रूप बतलाते हुए सिद्धसेन लिखते प्राणायामो वपुश्चित्तजाड्यदोषविशोधनः । शक्युत्कृष्टकलत्कार्यः प्रायेणैश्वर्यसत्तमः ॥ ___ध्यान-साधक में किन-किन योग्यताओं का होना आवश्यक है, इसका संकेत निम्न श्लोक में आधुनिक सन्दर्भ में किया गया है श्रद्धावान् विदितोपायः परिक्रान्तपरीषहः । भव्यो गुरूभिरादिष्टो योगाचारमुपाचरेत् ॥ - ध्यान के कुछ प्रयोगों और उनके परिणामों की चर्चा भी "ध्यान-द्वात्रिंशिका" में की गई है । जैसे-प्राणायाम शारीरिक व मानसिक जड़ता का निवारक है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। क्रूरता, क्लेशों व हिंसात्मक निमित्तों के अपनोदन के लिए मन, शब्दादि विषय एवं काय (शरीर) प्रेक्षा (दर्शन) का प्रयोग निर्दिष्ट है। कषाय उपशमन व आस्रव निरोध के लिए धर्मध्यान तथा अवशिष्ट मल (आन्तरिक दोष) की शुद्धि हेतु शुक्ल ध्यान की साधना बतलाते हुए कहा गया है इत्यास्रवनिरोधोऽयं कषायस्तम्भलक्षणः । तद्धय॑मस्माच्छुक्लं तु तमःशेषक्षयात्मकम् ॥ अन्त में साधक शुक्ल ध्यान के द्वितीय चरण में निर्विकल्प ध्यान की ओर बढ़ता हुआ विशुद्धि को प्राप्त करता है। तब प्रकट होता है आन्तरिक अनंत ऐश्वर्य । पतञ्जलि के अनुसार जैसे-जैसे शुद्धि बढ़ती है वैसे-वैसे ज्ञान वृद्धि होती चली जाती है योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः । चरम अभ्युदय के क्षण में निर्मल जल के सदृश कैवल्य (सर्वज्ञता) प्रकट होता है १९८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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