SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न विधिः प्रतिषेधो वा कुशलस्य प्रवर्तितुम् । तदेव वृत्तमात्मस्थं कषायपरिपक्तये ।।" समन्वयवादी दृष्टिकोण सिद्धसेन दिवाकर ने ध्यान द्वात्रिंशिका में जिस विषय को प्रस्तुत किया है उसे केवल जैन अवधारणाओं के संदर्भ में ही प्रस्तुत नहीं किया है। उस समय इस विषय का जो भी महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध था, उसका जैन चिंतन के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक विवेचन के साथ अपने पक्ष को जिस गहराई से इसमें रखा गया है, वह अन्यत्र देखने में नहीं आता। वैसे प्राचीन जैन, ध्यान मार्ग की अपनी विशेषताओं का जैसा तुलनात्मक स्पष्टीकरण सिद्धसेन दिवाकर ने किया, वैसा पूर्व में शायद ही किसी ने किया है। उदाहरण के लिए जैन, परम्परा में अभिमत चार ध्यानों में से प्रथम दो ध्यान आत व रोद्र भव एवं उपादान का युक्तिपूर्वक समावेश किया है -- पिपासाभ्युदय: सर्वो भवोपादनसाधनः ।। प्रदोषापायगमनादातरौद्रे तु ते मते ॥२४ मिथ्यात्व एवं कषायरूपी आस्रवों के निरोध (संवर) को ग्रन्थकार ने धर्मध्यान का मुख्य उद्देश्य बताया है ।" परम्परागत आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान विचय के स्थान पर चित्त, विषय एवं शरीर के स्वभाव दर्शन पर जो बल दिया है। वह सिद्धसेन दिवाकर की मौलिक प्रस्तुति है । आत्मवाद एवं कारणवाद की चर्चा के प्रसंग में बौद्ध अनात्मवाद एवं प्रतीत्यसमुत्पाद की गंभीर समीक्षा की है, जो उनके बौद्ध-दर्शन तथा जैन-दर्शन के गहन तुलनात्मक अध्ययन का एक असाधारण निदर्शन है। किसी अन्य दर्शन के हार्द को समझना, उसका यथातथ्य मूल्यांकन करते हुए स्वपक्ष का उसी गहनता से प्रस्थापन करना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है । किन्तु इसका सम्पादन सिद्धसेन दिवाकर ने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से अत्यन्त सहज और सरल रूप से किया है। ___योगाङ्गों की चर्चा करते हुए आसन, प्राणायाम, क्रूर क्लिष्ट, वितर्कात्म, चर, स्थिर, महत्, सूक्ष्म, विषय-ख्याति", सद्भावमात्रप्रज्ञप्ति आदि शब्दों का प्रयोग पातञ्जल-योग-दर्शन, न्याय, वैशेषिक दर्शन तथा सांख्य-दर्शन आदि के प्रभाव को सूचित करता है। कुशल के लिए कोई निर्देश नहीं होता है। सिद्धसेन दिवाकर की इस भावना पर "आचारांग" का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । आचारांग के दूसरे अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं कि - "द्रष्टा (सत्यदर्शी) के लिए कोई निर्देश नहीं है।४० ___ इस प्रकार सम्पूर्ण "द्वात्रिंशिका' में सिद्धसेन दिवाकर का तर्कपूर्ण समन्वयवादी दृष्टिकोण देखा जा सकता है। यहां कुछ ही विशेषताओं की अवगति प्रस्तुत की गई है। विज्ञजन स्वसमीक्षा से और भी अधिक बिन्दुओं का निर्देश कर सकते हैं, जिनकी चर्या 'ध्यानद्वात्रिंशिका' में हुई है। खण्ड २०, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy