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अन्तिम प्रयास ही निरुक्त के रूप में उपलब्ध है। यास्क के पश्चाद्वर्ती आचार्यों में आचार्य शौनक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने निर्वचन के क्षेत्र में यास्क के कार्यों को आगे बढ़ाया । यास्क, पाणिनि से पूर्ववर्ती थे। उनकी निरुक्त पद्धति के कुछ निदर्शन प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं यद्यपि वे उस समय के प्रचलित अर्थों के आधार पर किए गए हैं।
जैन आचार्यों ने निरुक्तों के माध्यम से विशेष शब्दों का निरुक्त कर निर्वचन विद्या की जो सेवा की है उसका एक स्पष्ट रूप प्रस्तुत निरुक्त कोश में हमारे सामने उभर आता है। इस कोश में १७५४ निरुक्त संग्रहीत हैं। इसमें दो परिशिष्ट हैं । पहले परिशिष्ट में कृदन्तपरक निरुक्त हैं। ये सभी निरुक्त अनट् प्रत्यय से निष्पन्न हैं । इनकी वाक्य रचना संक्षिप्त है। इनकी एकरूपता शृंखलाबद्ध घले तथा अनुक्रम का सौन्दर्य सुरक्षित रह सके, इस दृष्टि से इन्हें मूल निरुक्तों से पृथक् परिशिष्ट-१ में रखा गया है। इनकी संख्या २०८ है। दूसरे परिशिष्ट में तीर्थंकरों के नामों के अन्वर्थ निरक्त हैं । इससे चौबीस तीर्थंकरों के नामकरण की विशेष जानकारी मिलती है । इनकी संख्या २४ है । इस प्रकार इस कोश में १९८६ निरुक्त हैं। इनके पारायण से मूल शब्दगत अर्थ गरिमा को पकड़ने में सुविधा होगी तथा ज्ञानवृद्धि के साथ-साथ प्राचीन ज्ञान वैभव को आत्मसात् किया जा सकेगा।
इस कोश के निर्माण कार्य में अनेक साध्वियों, समणियों और मुमुक्षु बहिनों ने अपना योग दिया है । साध्वी सिद्धप्रज्ञा और साध्वी निर्वाश्री ने इसे कोश का रूप दिया। मुनिश्री दुलहराज का श्रम सिंचन भी इस कार्य की निष्पत्ति में बहुत मूल्यवान् रहा है। देशी शब्दकोश
भगवान महावीर ने जनभाषा में प्रवचन किया। प्राकृत उस समय की जनभाषा थी। जनभाषा होने के कारण उसका लचीलापन बना रहा। वह किसी घेरे में नहीं बन्धी। इस कारण उसका सम्पर्क देशी शब्दों से बना रहा। देशी शब्द व्याकरण से बन्धे हुए नहीं हैं। प्राकृत का विशाल स्वरूप देशी शब्दों का भंडार है अतः उसके अध्ययन के लिए देशी शब्दों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। उनके बिना प्राकृत भाषा संस्कृत आश्रित बन जाती है। देशी शब्दों का सम्बन्ध प्राचीनतम जनभाषाओं से है। इस कारण प्रस्तुत देशी शब्दकोश में कुछ शब्द कन्नड़ और तमिल के भी है। मराठी आदि भाषाओं के तो हैं ही। उत्तर और दक्षिण की सभी भाषाओं के शब्द आगम साहित्य में मिलते हैं। कुछ शब्द यूनान आदि विदेशों की भाषानों के भी हैं।
देशी शब्द सामान्यतया ग्राम्य या प्रांतीय अर्थ का वाचक है। निरुतकार आचार्य यास्क तथा पाणिनि ने देशी शब्द का प्रयोग प्रांत अर्थ में किया है। महाकवि बाण ने कादम्बरी, वात्स्यायन ने कामसूत्र, विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस तथा धनंजय ने दशरूपक में नाना देशों में बोली जाने वाली भाषाओं को देशी भाषा कहा है। ..
अनुयोगद्वार में शब्दों को पांच भागों में विभक्त किया गया है। उनमें नैपातिक शब्दों को देशी के अन्तर्गत माना जा सकता है।
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तुलसी प्रज्ञा
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