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________________ प्रतीत हुई । इस श्रमसाध्य और दुरूह कार्य को मुनिश्री श्रीचन्दजी 'कमल' ने सम्पन्न किया । वैज्ञानिक दृष्टि एवं वर्तमान तकनीक से परिपूर्ण यह शब्दकोश शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। एकार्थक शब्दकोश जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में शब्दकोशों की रचना की। उनमें अभिमान चिह्न, गोपाल, देवराज, द्रोण, धनपाल और हेमचन्द्र के नाम इसके लिए आदरपूर्वक लिए जा सकते हैं। यद्यपि सभी कोशकारों की रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं फिर भी कवि धनपाल की 'पाइयलच्छीनाममाला' प्राकृत भाषा का एक विश्रुत कोश है। यह पद्यबद्ध है। इसमें कुल २७५ गाथाएं और ९९८ शब्दों के पर्यायवाची शब्द संग्रहीत हैं। एकार्थक शब्द अपने प्रतिपाद्य विषय को सुव्यवस्थित रूप से निर्धारित करते हैं । एकार्थवाची शब्दों द्वारा विद्यार्थी को बहुश्रुत बनाया जा सकता है एवं प्रतिपाद्य विषय के विभिन्न अंगों का प्रतिपादन भी व्यवस्थित रूप से किया जाता है। एकार्थक शब्द का अभिप्राय वस्तुतः समानार्थक से है। किसी भी विषय के विभिन्न पहलुओं के स्वरूप समानार्थक अनेक शब्दों द्वारा सरलता से समझाए जा सकते हैं। एक ही विषय के लिए विभिन्न देशों और प्रांतों में विभिन्न शब्द प्रयुक्त होते हैं। एकार्थक कोश में उन सब शब्दों का संकलन किया जाता है। इसके विभिन्न क्षेत्रों के प्रशिक्षु अपनी-अपनी भाषा में उस विषय को ऐसे कोश के माध्यम से स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं । प्रस्तुत ग्रंथ आगम कल्पवृक्ष की एक उपशाखा है। जैसे-जैसे समय बीता वैसेवैसे आगमवृक्ष का विस्तार होता गया । आगम शब्दकोश के विशाल कार्य में एकार्थक शब्द, निरुक्त, देशी शब्द आदि का पृथक् वर्गीकरण किया गया। इस आधार पर उस महान् कोश में से प्रस्तुत कोश का अवतरण हो गया। इस कोश में मूल एकार्थक १४९७ हैं। लगभग २०० अवान्तर एकार्थ मिलाने से लगभग १७०० एकार्थकों का यह संकलन है। प्रत्येक एकार्थक का अर्थनिर्देश और प्रमाण दिया है। इसमें लगभग ८००० शब्दों का संकलन है। इस कार्य में अनेक साध्वियों, समणियों और मुमुक्षु बहिनों ने अपना योग दिया है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने इसे कोण का रूप दिया है । मुनिश्री दुलहराज की श्रम संयोजना और कल्पना ने भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निरुक्त कोश प्राचीन भारत में निरुक्तों की एक लम्बी परम्परा थी वैदिक और बौद्ध साहित्य में निरुक्त शब्दों पर कार्य हुआ है किन्तु आगम साहित्य पर इस प्रकार का कार्य नहीं हुआ था। समीक्षात्मक और तुलनात्मक दृष्टि से इसमें कार्य करने का पर्याप्त अवकाश है फिर भी प्रारंभिक स्तर पर जिस सामग्री का संकलन हुआ है वह कम मूल्यवान् नहीं है । निरुक्त के क्षेत्र में चौदह प्रयास हुए हैं। उनमें आचार्य यास्क द्वारा किया गया खंड २०, अंक ३ १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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