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________________ अर्थ ऐसा नहीं है। वहां तो इसका अर्थ ऐसे है-कयरे अर्थात् कितने, मग्गे अर्थात् मार्ग और अक्खाया अर्थात् बताए गए हैं। सन्दर्भ के अनुसार भगवान् ने कितने मार्ग बताए हैं, यही इसका सीधा और सही अर्थ है। पंडित ने आचार्य भिक्षु के प्राकृत ज्ञान को स्वीकार किया....। __ आचार्य भिक्षु ने अपनी सैद्धांतिक कृतियों में आगमिक सन्दर्भो का भरपूर उपयोग किया है । उनका पारायण करने से ऐसा लगता है मानो उनमें आगमों का नि!हण किया गया हो। आगम प्रमाणों के कारण जहां उनकी प्रमाणवत्ता सिद्ध होती है वहां आचार्य भिक्षु के प्रौढ़ और परिपक्व प्राकृत ज्ञान की भी झलक मिलती है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य का आगम ज्ञान भी पुष्ट और परिपक्व था। उनकी कृतियों में स्पष्ट रूप से प्राकृत प्रज्ञा का चमत्कार लक्षित होता है । उन्होंने अनेक आगमों की राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध व्याख्याएं लिखी। प्राकृत भाषा के मूलस्पर्शी ज्ञान से ही वैसा संभव हो सका।। आगम ग्रन्थों में 'भगवई' सबसे अधिक बड़ा और विशाल है। विषयों की दृष्टि से यह एक विशाल उदधि है। जयाचार्य ने इस महत्त्वपूर्ण और विशाल आगम ग्रन्थ का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया। इसका नाम है-भगवती की जोड़ । इसमें मूल के साथ टीका ग्रन्थों का भी अनुवाद है। वार्तिक के रूप में अपने मन्तव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें विभिन्न लयों में ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं। ४१ ढालें सिर्फ दोहों में हैं। ग्रन्थ में ३९२ रागिनियां प्रयुक्त हैं । इसमें ४९९३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छन्द, १८८४ प्राकृत-संस्कृत पद्य, ७४४९ पद्य परिमाण, ११९० गीतिकाएं, ९३२९ पद्य परिमाण, ४०४ यंत्र चित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुप पद्य परिमाण ग्रन्थान ६०९०६ है । इसके रचनाक्रम में जयाचार्य बोलते जाते और साध्वीप्रमुखा महासती गुलाब उसे लिपिबद्ध करती जाती । समुद्रमंथन के समान इस ग्रन्थ की रचना का जितना महत्त्व है उतना ही महत्त्व इसके सम्पादन का है । भगवती के मूलपाठ, वृत्ति और व्याख्याइन तीनों का समन्वयपूर्ण सामंजस्य करने में काफी समय, श्रम और शक्ति का नियोजन अपेक्षित है। गणाधिपति श्री तुलसी के कुशल निर्देशन में इसका सम्पादन साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी ने किया है। भगवती की जोड़ के अतिरिक्त जयाचार्य ने अन्य आगमों की भी राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध व्याख्याएं लिखी हैं । वे हैं उत्तराध्ययन की जोड़ आचारांग (प्रथम) की जोड़ आचारांग (द्वितीय) रो टब्बो ज्ञाता री जोड़ निशीथ री जोड़ अनुयोगद्वार री जोड़ (अपूर्ण) पन्नवणा री जोड़ (१० पद तक) तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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