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तेरापंथ में प्राकृत-साहित्य का उद्भव और विकास मुनि गुलाबचन्द्र 'निर्मोही'
संस्कृत की तरह प्राकृत का इतिहास भी बहुत प्राचीन है । इसीलिए कहा गया है - "सक्कता पागता चेव पसत्था इसि भासिया " - संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएं प्रशस्त और ऋषिभाषित हैं। दोनों भाषाएं समृद्ध और विशाल हैं। दोनों में वर्णित विषयों की शृंखला बहुत लम्बी है । प्राचीन इतिहास, संस्कृति और परम्परा का ज्ञान करने के लिए संस्कृत और प्राकृत का ज्ञान अपेक्षित ही नहीं, मनिवार्य है । हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के अध्ययन से सौ-दो सौ अथवा पांच सौ वर्षों तक का इतिहास जाना जा सकता है किन्तु हजारों-लाखों वर्ष प्राचीन इतिहास और संस्कृति का ज्ञान करने के लिए संस्कृत और प्राकृत — दोनों का अध्ययन जरूरी है ।
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जैन आगम तथा अनेक आगमेतर ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। उनका मूलस्पर्शी ज्ञान करने के लिए भी प्राकृत का ज्ञान जरूरी है । तेरापंथ धर्मसंघ में प्राकृत भाषा के ज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रही है । तेरापंथ के आदि प्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु से लेकर गणाधिपति श्री तुलसी तथा वर्तमान आचार्य श्री महाप्रज्ञ तक प्राकृत भाषा का स्रोत अजस्र गति से निर्बाध चलता रहा है । पूर्व आचार्यों का प्राकृत ज्ञान व्याकरण पर आधारित न भी रहा हो किन्तु उसके मूल हार्द को ग्रहण करने में उनकी अर्हता सदा ऊर्ध्वमुखी रही है । उन्होंने अपनी सूक्ष्म मेधा से प्राकृत भाषा में निबद्ध आगमों के मूल को पकड़ने में सफलता प्राप्त की ।
एक बार आचार्य भिक्षु के पास संस्कृत भाषा का ज्ञाता एक पंडित आया । उसने आचार्य भिक्षु से पूछा- आप संस्कृत जानते हैं या नहीं ? आचार्य भिक्षु ने कहा - संस्कृत का अध्ययन तो नहीं किया । पंडित ने कहा- जब संस्कृत नहीं जानते तो आगमों का अध्ययन और अर्थ कैसे करते हैं ? आचार्य भिक्षु ने उत्तर दियाहम संस्कृत के बिना मूल प्राकृत के आधार पर ही आगमों का अर्थ करते हैं। पंडित ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा-संस्कृत के बिना आगमों का सही अर्थ करना संभव ही नहीं है । आचार्य भिक्षु ने पूछा - ' कयरे मग्गे अक्खाया' - इसका क्या अर्थ होता है ? पंडित एक बार तो असमंजस में पड़ गया । प्राकृत भाषा का ज्ञान उसे था नहीं । संस्कृत के आधार पर अर्थ निकालने में तैसे उसने अर्थ करते हुए कहा – कयरे अर्थात् केर, अर्थात् आखा । राजस्थानी में अक्षत को आखा कहते हैं । पंडित बोला - इसका तो सीधा सा अर्थ है – केर, मूंग और आखा । आचार्य भिक्षु बोले- आगम में तो इसका
समर्थ नहीं हुआ। मग्गे अर्थात् मूंग
फिर भी जैसेऔर अक्खाया
खण्ड २०, अंक ३
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