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नहीं है अर्थात् क्रिया या कर्म के होने पर ही चेतना रूपांतरित होती है। किन्तु चेतना में क्रिया या कर्म कैसे सम्भव है, क्योंकि क्रिया या कर्म पुद्गल है ।“कुन्दकुन्द ने कर्म को पुद्गल बताते हुए कहा है
"उवभोजमिदिएहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पोग्गलं जाणे ॥"
-पंचास्तिकाय, गाथा ८२ अर्थात् इन्द्रियों के उपभोग्य विषय, इन्द्रियां, शरीर, मन, कर्म और अन्य जो मूर्त हैं वे सब पुद्गल हैं।
दूसरे, क्रिया या कर्म नित्य सहभावी धर्म है या अनित्य क्रमभावी अर्थात् कर्म 'गुण' है या 'पर्याय' ? क्रिया को चेतना का 'गुण' नहीं माना जा सकता है, क्योंकि चेतना स्वयं जीव का 'गुण' है और 'गुण' स्वयं निर्गुण होते हैं। दूसरी ओर क्रिया या कर्म को 'पर्याय' भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि 'पर्याय' अनित्य है, जबकि क्रिया या कर्म चेतना में नित्य रूप में पाया जाता है । इस समस्या के समाधान के लिए दो अन्य प्रश्नों का समाधान आवश्यक है। ये प्रश्न हैं क्रिया या कर्म से क्या तात्पर्य है ? क्रिया या कर्म दोनों एक हैं या भिन्न ? क्रिया या कर्म तथा आत्मा में क्या सम्बन्ध है ? कुन्दकुन्द ने यद्यपि इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया, किन्तु यदि कुन्दकुन्द के विचारों के सन्दर्भ में इन प्रश्नों का समाधान खोजा जाए, तब क्रिया और कर्म को एक नहीं मानकर, दोनों को अलग-अलग मानना होगा और ऐसा करने पर, सम्भवतः उन समस्याओं का, जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है, समाधान हो जायेगा। जो क्रिया जीव की शुद्ध अवस्था में होती है वह 'क्रिया' है और जो क्रिया अशुद्ध अवस्था में होती है वह 'कर्म' है, क्योंकि अशुद्ध अवस्था में जो चैतन्य परिणमन होता है वह चैतन्य तथा उससे सम्बद्ध पुद्गल, इन दोनों में होता है जो कि पुद्गलमय चैतन्य परिणमन है। इसलिए पुद्गलमय चैतन्य परिणमन की क्रिया को 'कर्म' कहा है और कर्म को पुद्गल, क्योंकि वह परिणमन पुद्गल में होता है तथा पुद्गल में परिणमन होने से, पुद्गल के परिणमन के निमित्त से चेतना या जीव में परिणमन होता है। किन्तु शुद्ध पुद्गल या जीव से भिन्न पुद्गल में भी परिवर्तन होता है जो कि क्रिया से ही सम्भव है । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि शुद्ध जीव में होने वाली क्रिया, "क्रिया' है ? अतः यहां यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि 'क्रिया' स्वयं अपने आप में क्या हैं ? वह जीव और पुद्गल का 'गुण' है 'पर्याय' ? क्रिया को न तो 'गुण' माना जा सकता है और न ही 'पर्याय' । इसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। ऐसी स्थिति में क्रिया की सत्ता को कैसे माना जा सकता है, क्योंकि जगत् में 'गुणों' अथवा 'पर्यायों' के अतिरिक्त किसी की सत्ता नहीं है।
। अन्त में, संक्षेप में कहा जा सकता है कि चैतन्य परिणमन ही 'उपयोग' - है, जिसके दो रूप हैं-ज्ञान रूप चैतन्य परिणमन और दर्शन रूप चैतन्य परिणमन । चैतन्यपरिणमन के इन दोनों रूपों के स्वभाव और विभाव के भेद से क्रमशः दो-दो प्रकार हैं
-स्वभाव ज्ञान रूप चैतन्य परिणमन और विभाव ज्ञान रूप चैतन्य परिणमन तथा १७४
तुलसी प्रशा
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