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सर्वज्ञ की अवस्था में जो ज्ञान होता है उसमें कालिक भेद नहीं होता है । सर्वज्ञ प्रत्येक क्षण में समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को अर्थात् समस्त अवस्थाओं को जानता है । दूसरे शुद्ध अवस्था में अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन, दोनों प्रत्येक क्षण में होते हैं । इससे स्पष्ट होता है कि 'दर्शन' और 'ज्ञान' न तो एक हैं और न ही ज्ञान की पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्था है।
चैतन्य परिणमन के उपर्युक्त दोनों रूप जीव की शुद्ध और अशुद्ध दोनों अवस्थाओं में उपस्थित रहते हैं, किन्तु अशुद्ध अवस्था में चेतना या चैतन्य परिणमन तीन रूपों में-ज्ञान, कर्म, और कर्मफल में रूपांतरित होता है । कुन्दकुन्द के शब्दों
"परिणमदि चेयणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा । सा पुण णाणे कम्मे फ्लम्मि वा कम्मणे भणिदा॥"
-प्रवचनसार, गाथा २.३१ अर्थात् आत्मा चेतना रूप में परिणमित अर्थात् रूपांतरित होती है तथा चेतना तीन प्रकार से (रूपांतरित) मानी गई है। फिर वह (चेतना) ज्ञान में, कर्म में तथा कर्म के फल में (रूपांतरित) कही गई हैं।
पदार्थ का विकल्प अर्थात् जानना चेतना का ज्ञान रूप में रूपांतरित होना है। चेतना का मन के साथ, जो कि पुद्गल है, सम्पर्क होने से वह मानसिक विचारों या भावों के रूप में परिणमन करती है। चेतना का यह मानसिक भावों के रूप में परिणमन करना चेतना का कर्म रूप में रूपांतरित होना है। इसके शुभ, अशुभ और शुद्ध के भेद से तीन रूप हैं।" जो कर्म चेतना या मानसिक विचार या भाव रूप चैतन्य परिणमन अन्य जीवों के हित रूप हो, वह 'शुभ कर्म चेतना' है और जो कर्म चेतना अन्य जीवों के अहित तथा विषयों के प्रति रागद्वेष रूप हो, वह 'अशुभ कर्म चेतना' है।" इन दोनों प्रकार के कर्म रूप चैतन्य परिणमन से जीव का पुद्गल से सम्बन्ध अर्थात् बन्ध होता है, जो जीव के स्वरूप को आच्छादित करता है। इन दोनों के विपरीत जो शुद्ध भाव रूप चैतन्य परिणमन हित-अहित तथा राग-द्वेष रूप नहीं है, अपितु शम है वह 'शुद्ध कर्म चेतना' है। जीवन इन स्वयं के शुभ, अशुभ और शुद्ध भावों या चैतन्य परिणमन का कर्ता होता है । ध्यान देने की बात यह है कि जीव स्वयं के भावों का कर्ता तथा उनके फल का भोक्ता होता है, किन्तु पर के भावों का न तो कर्ता होता है और न ही भोक्ता।
शुभ, अशुभ और शुद्ध कर्म चेतना अपना-अपना एक विशेष संस्कार या प्रभाव छोड़ती है जिसके कारण चेतना पुनः कालांतर में उस संस्कार या प्रभाव के अनुसार रूपांतरित होती है उसे 'कर्म फल चेतना' कहते हैं । अन्य शब्दों में, शुभ, अशुभ आदि कर्म चेतना के अनुसार चेतना का सुख-दुःख आदि के रूप में परिणमन करना 'कर्म फल चेतना' है। यहां प्रश्न उठता है कि चेतना में जब परिणमन होता है या चेतना रूपांतरित होती है तब उसमें कोई क्रिया होती है या नहीं ? जवाब में कहा जा सकता है कि चेतना में जब परिणमन होता है या वह रूपांतरित होती है तब उसमें क्रिया या कर्म होता है, क्योंकि बिना क्रिया या कर्म के किसी वस्तु या विषय में परिवर्तन सम्भव
खण्ड २०, अंक ३
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