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स्वभाव दर्शन रूप चैतन्य परिणमन और विभाव दर्शन रूप चैतन्य परिणमन । चैतन्य परिणमन के ये रूप जीव की शुद्ध और अशुद्ध दोनों अवस्थाओं में रहते हैं, किन्तु अशुद्ध अवस्था में चेतना या चैतन्य परिणमन तीन रूपों में रूपांतरित होता है— ज्ञान में, कर्म में और कर्म फल में ।
सन्दर्भ
१. (क) प्रवचनसार, गाथा २.६३, कुन्दकुन्द - भारती में संकलित, श्रुत भंडार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फल्टन, प्रथमावृत्ति, १९७०
(ख) नियमसार, गाथा १०, कुन्दकुन्द - भारती में संकलित, श्रुतभंडार व ग्रन्थ
प्रकाशन समिति, फल्टन, प्रथमावृत्ति, १९७०
(ग) पंचास्तिकाय, गाथा ४०, कुम्बकुन्द भारती में संकलित, श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फल्टन, प्रथमावृत्ति, १९७०
२. पंचास्तिकाय संग्रह - समयव्याख्या संस्कृत टीका, गाथा ४० की टोका, पृ. ७५, साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ
सुरक्षा ट्रस्ट, बापूनगर, जयपुर, पंचम संस्करण, १९९०
३. जैन दर्शन, पृ० ११०, डॉ० महेन्द्र कुमार जैन, श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थ माला, अस्सी, वाराणसी, तृतीय संस्करण, १९७४
४. (क) पंचास्तिकाय, गाथा ४१ व ४२
(ख) नियमसार, गाथा ११ से १४
५. नियमसार, गाथा १०
६. समस्त ज्ञानावरण के समूल नाश होने पर प्रकट होने वाला निरावरण ज्ञान "केवल ज्ञान" है । कुन्दकुन्द के अनुसार वह ज्ञान जो आत्मा के समस्त कर्मों के नाश होने पर प्रकट होता है तथा तीनों कालों के समस्त द्रव्यों को मूर्तअमूर्त को, चेतन-अचेतन को, उत्पन्न - अनुत्पन्न को और नष्ट पर्यायों को बिना किसी साधन या माध्यम से पूर्णत: प्रत्यक्ष रूप से एक साथ जानता है, 'केवलज्ञान' है ।
७. नियमसार, गाथा ११
८. (क) वही, गाथा ११ व १२
(ख) पंचास्तिकाय, गाथा ११ व ४१
९. यहां 'दर्शन' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है, यह कहना कठिन है, किन्तु दर्शनोपयोग के आधार पर कहा जा सकता है कि यहां 'दर्शन' का देखने से है ।
तात्पर्य
१०. नियमसार, गाथा १३
१९. वही, गाथा १३ व १४
१२. प्रवचनसार, गाथा २.३१ १३. वही, गाथा २.३२ १४. (क) वही, गाथा २.३२ भावपाहुड, गाथा ७६
खण्ड २०, अंक ३
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