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________________ जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति जब तक स्वयं का स्वामी नहीं होगा तब तक वस्तुएं उस पर राज्य करेंगी। वे उसे इतना मूच्छित कर देंगी कि वह स्वयं को भूल जाएगा । जिस शरीर को उसने धरोहर के रूप में स्वीकार किया है उस शरीर की वह स्वयं धरोहर हो जायेगा। भगवान् महावीर ने जीव और शरीर के भेद विज्ञान से ही अपनी बात प्रारम्भ की है। बिना इसके अहिंसा, अपरिग्रह आदि कुछ फलित नहीं होता। अपरिग्रह की साधना के लिए मूर्छा को तोड़ना आवश्यक है । यही समय की मांग है, आज के युग की आवश्यकता है । भगवान् महावीर की दृष्टि में हमें अपने जीवन के गन्तव्य को निश्चित करना आवश्यक है। बनावटीपन के रास्ते से अलग रहना जरूरी है। यदि बाहर-भीतर एक सा रहना है तो आत्मा और शरीर की सही पहचान करनी होगी। आत्मज्ञान जितना बढ़ता जायगा, उतने ही हम अहिंसक होते जायेंगे, अपरिग्रही बनते जायेंगे। ___सत्य और अस्तेय को जीने वाला व्यक्ति परिग्रह में प्रवृत्त नहीं हो सकता । शरीर के ममत्व के त्याग के साथ ही परिग्रह या वस्तुओं का संग्रह महत्त्वहीन हो जाता है । आत्मा के विकास के लिए किसी परायी वस्तु की अपेक्षा नहीं है । अणुव्रतों तथा महाव्रतों की साधना से अपरिग्रह का मार्ग प्रशस्त होगा-यह निश्चित है। ___ कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में बदलाव के लिए आगे आ सकता है। उसके परिवर्तन की रश्मियां समाज को प्रभावित करेंगी ही। इसलिए जैन समाज अशुभ से शुभ की ओर, हेय से उपादेय की ओर जाने में किसी समारोह की प्रतीक्षा नहीं करता, भीड़ का अनुगमन नहीं चाहता और न ही किसी राजनेता या बड़े व्यक्तित्व के द्वारा उसे उद्घाटन की आवश्यकता होती है । श्रावक जिन गुणों का विकास करता है, उनकी अभिव्यक्ति समाज में होती है । स्थानांगसूत्र में दस प्रकार के जिन धर्मों का विवेचन है वे गृहस्थ के सामाजिक दायित्वों को ही पूरा करते हैं । अणुव्रतों का पालन बिना समाज के सम्भव नहीं है । अतः जैनधर्म को कितना ही निवृत्तिमूलक क्यों न कहा जाय, किन्तु वह प्रवृत्ति मार्ग से अलग नहीं है । उसमें केवल वैराग्य की बात नहीं है बल्कि समाज के उत्थान की भी व्यवस्था है । जरूरत केवल इस बात की है कि हमारी दृष्टि सही हो, जो काम करें उसके परिणाम से भलीभांति परिचित हों, जीवन-यापन के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, उनको प्राप्त करने के क्या साधन हैं तथा उनके उपभोग से दूसरों के हित का कितना नुकसान होता है आदि बातों को ध्यान में अवश्य रखें हममें वस्तुओं की मर्यादा नहीं, अपनी मर्यादा रखना जरूरी है । इसी से आत्मज्ञान की समझ विकसित होगी और गृहस्थ, व्यापारी आदि भी अपरिग्रही बन सकेंगे। फलतः समाज में व्याप्त शोषण तथा जमाखोरी की प्रवृत्ति को बदलने में निश्चय ही मदद मिगेगी-ऐसी हमारी मान्यता है। ___ स्पष्ट है कि यदि हम अहिंसा आदि सद्गुणों के पालन में ईमानदार हैं तो हम परिग्रही नहीं हो सकते । यदि हम परिग्रही हैं तो अहिंसा आदि सद्गुणों का पालन १६८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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