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योग्यताएं परिग्रह का एक मुख्य कारण कहा जा सकता है।
वर्तमान सामाजिक मूल्य से भी परिग्रह-वृत्ति प्रभावित हुई है। समाज में हमने उसे प्रतिष्ठा देनी प्रारम्भ कर दी है जो धन-वैभव सम्पन्न है। नैतिक मूल्यों के धनी हमारी उंगलियों पर नहीं चढ़ते । युवा पीढ़ी के कलाकारों, चरित्रवान युवक-युवतियों एवं चिंतनशील व्यक्तियों की हमें पहचान नहीं रही। बनावटीपन की इस भीड़ में अपरिग्रह का चिंतन कहीं खो गया है। जीवन मूल्यों को हमने इतना अधिक पकड़ लिया है कि जीवन मूल्य हमारे हाथ से छिटक गया है और जीव का, आत्मा का, निर्मलता का मूल्य न रह जाय तो जड़ता ही पनपेगी। कीचड़ ही कीचड़ नजर आयेगा। आधुनिक तत्त्व
भय के वैज्ञानिक उपकरण बढ़े हैं । अतः उनसे सुरक्षित होने के साधन भी खोजे गए हैं। वर्तमान से असंतोष एवं भविष्य के प्रति निराशा ने व्यक्ति को अधिक परिग्रही बनाया है। पहले स्वर्ग के सुख के प्रति आस्था होने से व्यक्ति इस लोक में अधिक सुखी होने का प्रयत्न नहीं करता था। अब वह भ्रम टूट गया । अतः साधन सम्पन्न व्यक्ति यहीं स्वर्ग बनाना चाहता है। स्वर्ग के सुखों के लिए रत्न, अप्सराएं आदि चाहिए, इसलिए व्यक्ति किसी तरह से भी उन्हें जुटा रहा है और उस अपव्यय को रोक रहा है जो वह धर्म पर खर्च करता था। पहले धर्म और व्यापार साथ-साथ थे । अब धर्म में व्यापार प्रारम्भ हो गया है।
भौतिकवाद के इस युग में अध्यात्म तथा सद्गुण की चर्चा ने जिस ढंग से जोर पकड़ा है, उससे प्रतीत होता है कि स्थायी सुख भौतिक उपलब्धियों में नहीं है और परिग्रह से प्राप्त आंतरिक क्लेश तथा पीड़ा के प्रति छटपटाहट भी है। विश्व स्तर पर परिग्रह के कारण जो आपाधापी मची है, विघटन का जो धरातल तैयार हुआ है, वह साधारण संकट का परिचायक नहीं है । सच पूछा जाय तो कहा जा सकता है कि सारी मनुष्यता और सारी सभ्यता में संकट है। धनी और निर्धन वर्गों की विकसित और विकासशील देशों की खाई चौड़ी हो रही है।
परिग्रह के कारण विश्व जनमानस आतंकवाद, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, लूट, हत्या, अपहरण जैसे अनैतिक कर्मों द्वारा अंधकारपूर्ण भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है । पृथकतावादी शक्तियां इस प्रकार सक्रिय हो रही हैं कि मानव, मानव का दुश्मन बन, "बसुधैव कुटुम्बकम्" का आदर्श त्याग, अंधखोह में गिरने को प्रयत्नशील है।
परिग्रह ने अशांति, हिंसा, बुराई, अनैतिकता, भौतिकता, अधार्मिकता का मार्ग प्रशस्त किया है और विश्व को एक ऐसी ज्वाला में झोंक दिया गया है कि मानवता, सहअस्तित्व तथा प्रेम सद्भावना के स्थान पर हम हिंसक समाज की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। अतः समाज की आंतरिक तथा बाह्य घटनाओं एवं स्थितियों का सम्यक् आकलन कर समाज को स्वस्थ शिक्षा देने तथा व्यक्ति को सही मार्ग पर लाने की महती आवश्यकता है। खण्ड २०, अंक
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