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________________ जैन-दर्शन का अपरिग्रहवाद : आज की आवश्यकता कुमुदनाथ झा दर्शन की मूल समस्या जीवन अथवा श्रेयस्कर जीवन के परिप्रेक्ष्य में जगत् और उसकी अनुभूतियों की व्याख्या करना ही नहीं है बल्कि सद्गुण, व्रत, मूल्य, आदर्श आदि की उपयोगिता भी निरूपित करना है। इसलिए सुकरात ने सद्गुण को ज्ञान कहा और अपने दर्शन में सद्गुण के व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया । वस्तुतः जिस ज्ञान और सद्गुण का सम्बन्ध अथवा यों कहें कि जिस ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य और दर्शन का सम्बन्ध जीवन से नहीं है, वह सब कुछ होते हुए भी तुच्छ है, अनुपयोगी है। जैन-दर्शन का अपरिग्रह केवल सिद्धांत नहीं है, केवल चिंतन-मनन का विषय नहीं है बल्कि एक महत्त्वपूर्ण नैतिक सद्गुण है, जिसे जीवन में दृढ़तापूर्वक उतारना होगा तथा जिसकी भोर निरन्तर बढ़ते रहना होगा । आज के युग की आवश्यकता है तथा जीवन के व्यापक संदर्भो में प्रयोग का विषय है । ___अपरिग्रह के स्वरूप को भलीभांति समझने के लिए जैनाचार्यों ने परिग्रह को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। संभवतः तत्वार्थाधिगमसूत्र में परिग्रह की सबसे सूक्ष्म परिभाषा दी गई है-“मूर्छा परिग्रहः" अर्थात् भौतिक वस्तुओं के प्रति तृष्णा एवं ममत्व का भाव रखना मूर्छा है । शास्त्रों में परिग्रह को एक महावृक्ष कहा गया है जिसकी जड़ें तृष्णा, आकांक्षा आदि हैं तथा छलकपट, कामभोग आदि इसकी शाखाएं तथा फल हैं । प्रश्न व्याकरणसूत्र आदि ग्रन्थों में आंतरिक एवं बाह्य परिग्रह की बात भी कही गई है। आत्मा के निज गुणों को छोड़कर क्रोध, लोभ आदि परभावों को ग्रहण करना आंतरिक, परिग्रह है तथा ममत्व भाव से धन वैभव आदि भौतिक वस्तुओं का संग्रह बाह्य परिग्रह है। जैन ग्रन्थों में परिग्रह के तीस नामों का उल्लेख है जो उसके स्वरूप के विभिन्न आयामों को प्रकट करते हैं । वस्तुतः परिग्रह में समस्त विश्व एवं व्यक्ति का संपूर्ण मनोलोक समाहित है । अपरिग्रह में हम इन दोनों से क्रमशः निलिप्त होकर आत्मस्वरूप मात्र रह जाते हैं जो जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मज्ञान की चरम उपलब्धि हजारों वर्षों से भारतीय मनीषी भौतिकता के दुष्परिणामों को व्यक्त करते आ रहे हैं । पाश्चात्य देशों के समृद्ध जीवन ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि मानव को जिस सुख तथा संतोष की तलाश है, वह धन-वैभव, मान-सम्मान भौतिकता में नहीं है । फिर भी, मनुष्य के पास अपार परिग्रह है, उसके प्रति तृष्णा है. वस्तुओं के खण्ड २०, अक ३ १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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