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१४. रामचरणजी की परची (ह. लि. ग्रन्थ) पद्य ३१-३२, शाहपुरा ; श्री रामस्नेही सम्प्रदाय, पृ. ७-१०
१५. मुनि बुद्धमल्ल, तेरापन्थ का इतिहास, १९९०, पृ. ४४
१६. मुनि बुद्धमल्ल, तेरापन्थ का इतिहास, १९९०, पृ. ४३
१७. केवलराम स्वामी : श्री रामस्नेही सम्प्रदाय, पृ. १-३६
१५. जैन भारती साप्ताहिक, वर्ष ९, अंक १९, पृ. ३११-३१२ श्रमण सागरमल
१९. तेरापन्थ का इतिहास, पृ. ४४
२०. रामपुरिया श्रीचंद - आचार्य भिक्षु जीवन कथा और व्यक्तित्व, पृ. २२ २१. श्री रामस्नेही सम्प्रदाय एवं तेरापन्थ के इतिहास के आधार पर २२. रामचरणजी की अणभे वांणी, छन्द १७
२३. रामपुरिया श्रीचंद - आचार्य संत भीखणजी, १९४८, पृ. २१५ २४. रामचरणजी की अणभं वांणी, पृ. ६
२५. रामपुरिया श्रीचंद - आचार्य संत भीखणजी, पृ. २०७
२६. रामपुरिया श्रीचंद - आचार्य संत भीखणजी, पृ. १९८
२७. रामचरणजी की अणभवांणी, पृ. ८
२५. आचार्य संत भीखणजी, पृ. २०९
२९. जैन काल गणना में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी के रूप में दो काल बताए हुए हैं जहां अवसर्पिणी में समाज पतन की ओर गिरता जाता है वहां उत्सर्पिणी उन्नति की ओर बढ़ता जाता है । इस सम्पूर्ण क्रम को ६ आरों में बांटा जाता है । आजकल पंचम आरा "दुषम दुषमा' अभी चल रहा है जो पतन का काल है तथा कठिन समय है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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