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________________ अर पूरणमल, गोरखनाथ अर करड़ो तथा गोरखनाथ अर कबीरदास की कथाएं मशहूर हैं । दसवीं सदी में हुए गोरखनाथ के साथ १५वीं सदी तक के सन्तों को जोड़ दिया गया है । यही नहीं १६वीं सदी विक्रमी में हुए सिद्ध जसनाथ ने भी गोरखनाथ दर्शन करने का दावा किया है घिनस घियाड़ो अजमल ऊग्यो, ऊग्यो सोने केरो भाण । भागथली गुरु गोरखमिलिया, दरसण दीन्या म्हाने आण ।। वास्तव में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ और जालंधरनाथ क्रमशः कोलमार्गी और वाममार्गी सम्प्रदायों में हुए हैं जिनकी पीठ क्रमश: ओडियान (ज्वालामुखी) और जलंधर (पंजाब) में थी। (कोलमार्ग का एक आम्नाय राणोली (सीकर) में था जिसमें उत्पन्न भावरक्त (अल्लट) ने हर्ष पर्वत का शिवमन्दिर निर्माण कराया था।) ओडियान के आचार्य मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ थे । गोरखनाथ ने 'सहजावस्था' के नाम पर हो रहे शिथिलाचार को समाप्त कर षडंगयोग अथवा हठयोग की प्रतिष्ठा की और अलख-निरंजन की नई व्याख्या करके उसे शिव से जोड़ दिया जिससे नाथसम्प्रदाय के रूप में एक नया सम्प्रदाय उदय हुआ। यह सम्प्रदाय पूरे उत्तर भारत में फैला किन्तु उत्तर-पश्चिमी राजस्थान इसका केन्द्र बना रहा। श्री मदनलाल शर्मा ने इस क्षेत्र में मौखिक रूप से प्रचलित लगभग दो सौ पचास सब्द-वाणियों का संग्रह किया है और उनमें से चुनींदा ७२ वाणियों को सरण मछंदर गोरख बोले शीर्षक से प्रकाशित किया है । इनमें भी एक शब्द में स्वयं गोरख ने मत्येन्द्रनाथ को अपना गुरु बनाया है सुम्न में आया सुन्न में जाया, सुन्न में सहर बसायाजी। मार्थ हाथ मछंदर धरिया, गोरखनाथ कुहाया जी॥ श्री शर्मा का संग्रह कार्य और सम्पादन उच्च कोटि का बन पड़ा है और 'गोरखवाणी' तथा “नाथसिद्धों की बानियां" जैसे पूर्व प्रकाशनों से अधिक प्रामाणिक हैं क्योंकि ये बानियां सीधे लोक से आई हैं। पुस्तक के अन्त में शब्दार्थ और पारिभाषिक शब्दार्थ दे दिए हैं । एक परिशिष्ट में प्रतीकार्थ भी दिए हैं जिससे अनुवादित वाणियों को समझने में आसानी है । १५. कायमखानी वंश का इतिहास -डॉ० रतनलाल मिश्र, प्रकाशक-कुटीर प्रकाशन, मण्डावा (झन्झुनू), प्रथम संस्करण-सन्-१९९४, मूल्य-एक सौ रुपये।। ___ 'इतिहास का यह परम सिद्धांत है कि अनेकों जातियां पूर्व परम्पराओं को विस्मृत कर नए मानव समुद्र में एकाकार हो जाती हैं।'-लेखक ने इस सत्य को अंगीकार करके यह कायमखानी वंश का इतिहास लिखा है। उसका कहना हैकायमखानी नवाबों की सविशेष उपलब्धियों को नकार कर कुछ पुस्तकें पिछले दिनों में प्रकाशित हुई हैं। उनमें कायमखानी नबाबों की कीर्ति को धूमिल करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु प्रस्तुत इतिहास में उसने मिथ्यारोपों को दूर कर उनकी उप २५८ तुलसी प्रक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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