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________________ यही नहीं डॉ० जैन ने आगमों का अर्थ करने की पांच विधियां भी बतलाई हैं और लिखा है कि जहां जिस विधि से जो अर्थ प्राप्त होता हो उसे उसी विधि से जानना चाहिए तथा स्याद्वाद-सिद्धांतानुसार समन्वय करना चाहिए। ये पांच विधियां क्रमशः शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ की हैं जिन पर उन्होंने व्यापक विवेचन दिया है। सर्वांश में पुस्तक पठनीय और मननीय है । उनका सारांश कि आचार्य, उपाध्याय और साधु में आचारगत तात्त्विक भेद नहीं, अपितु औपाधिक भेद है। तीनों ही श्रमण गुरु शब्द के वाचक हैं और अर्हत् अवस्था पाकर देव हो जाते हैं-भी मनन योग्य है । अन्त में डॉ० दरबारीलाल कोठिया के शब्दो में-लेखक ने किसी भी विषय पर बिना शास्त्रीय प्रमाणों के लेखनी नहीं चलाई है। सधी हुई लेखनी के अतिरिक्त गहरा विचार भी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।' ६. कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया -जगन्मोहनलाल शास्त्री, प्रकाशक-निज ज्ञानसागर शिक्षा कोष, मेडीक्योर लेबोरेट्री बिल्डिंग, प्रेमनगर, सतना (म० प्र०)। द्वितीय आवृति-सन्-१९९४, मूल्य-निःशूल्क। ____कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया का पहला संस्करण जून, १९९३ में छपा था । अब मार्च १९९४ में उसकी दूसरी आवृति हुई है। इस दूसरी आवृत्ति में प्रथम संस्करण पढ़कर पाठकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी दिए गए हैं और यह भाग भी मूल पुस्तक के आधे भाग के बरावर हो गया है। इससे ऐसी पुस्तक की आवश्यकता प्रतिपादित होती है। वस्तुतः आचार्य विद्यासागरजी के चार प्रवचनों के संग्रह-अकिंचित्कर पर स्व० पं० फूलचन्द सिद्धांतशास्त्री के लेखन से यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि मिथ्यात्व अकिचित्कर कैसे है ? पं० जगन्मोहनजी ने इस विषयक गम्भीर पर्यालोचन किया है और मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारित्र के कर्मों को भिन्न-भिन्न बताया है। तीन आचार्यों के उद्धरण दिए हैं और मिथ्यात्व से कषाय उत्पत्ति नहीं होने से उसे अकिंचित्कर कहना उचित ठहराया है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया जटिल है और तत्संबंधी निर्णय भी आसान नहीं। इसलिए इस विषयक अन्तिम वक्तव्य देने के स्थान पर सत्यानुसंधान जारी रखना चाहिए और मिथ्यात्व और सम्यक्त्व पर प्राचीन आचार्यों के चिन्तन-अनुचिन्तन को सामने लाया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में उपाध्याय कनकनन्दी आदि के विचार भी पर्यालोचनीय १०. छिन्दवाड़ा के प्रकाशन श्री दिगम्बर जैन समाज, छिन्दवाड़ा, श्री दि० जैन गोला पूरव पंचायत, छिन्दवाड़ा; प्रो० शीलचन्द्र जैन, छिन्दवाड़ा और श्रीमती कुसुम जैन, धौरा (छतरपुर) के कतिपय लघु प्रकाशन प्राप्त हुए हैं। ये सभी प्रकाशन डेनियलसन कॉलेज, छिदवाड़ा खण्ड २०, अंक ३ २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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