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________________ पाठकों के लिए भी उदात्त-प्रेरणा का स्रोत बन गया है। नमोकार मन्त्र का माहात्म्य एवं प्रभाव-शीर्षक अध्याय में उन्होंने जो अर्जुनमाली, अंजनचोर, सुभीम चक्रवर्ती, श्रीपाल-मैना सुन्दरी आदि कथाओं के साथ अधुनातन घटनाओं का ब्यौरा दिया है वह विश्वासोत्पादक है। आचार्य विमलसागरजी का शुभाशीष तो बहुत प्रेरणादायी है। तीन श्वासोच्छ्वास में मन्त्र जाप की उनकी शिक्षा निःसंदेह अनुभवजन्य चेतनानुभूति है जो आध्यात्मिक ऊर्जा समुत्पन्न करने वाली है । और भी इस प्रकाशन में अनेकों अभिनव चिन्तन हैं । आशा है, डॉ. जैन अपने इस दिशा में अपने प्रथम प्रयास को आगे बढ़ाएंगे और अपनी घोषणा अनुरूप संकेतित बिन्दुओं पर विस्तार से कार्य करेंगे जो निकट-भविष्य में जिज्ञासु पाठकों को भी उपलब्ध होगा। ८. देव, शास्त्र और गुरु -डॉ० सुदर्शनलाल जैन, प्रकाशक--अखिल भारतीय दिगम्बर जैन परिषद्, १, सेन्ट्रल स्कूल कॉलोनी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण-१९९४, मूल्य-२०/- रुपये। सतना (मध्य प्रदेश) में हुई एक बैठक में तय किया गया कि आगमों के अनुसार देव, शास्त्र और गुरु कौन हैं ? इसका निर्णय होना चाहिए। इस निमित्त विवादरहित शोधपूर्ण, प्रामाणिक और सर्व सुलभ ग्रन्थ की रचना का काम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. सुदर्शनलाल जैन को सौंपा गया और उन्होंने ऐसा एक ग्रन्थ तैयार कर खुरई में आयोजित बैठक में प्रस्तुत कर दिया। उनकी प्रस्तुति को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया और उसमें आंशिक परिवर्तन करके यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् का यह प्रकाशन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है। परिशिष्ट में डॉ० जैन ने प्रसिद्धि दिगम्बर जैन शास्त्रकार आचार्य और शास्त्रों की नामावली दी है । आधुनिक पुरुषों द्वारा लिखित वचनों की प्रामाणिकता के सम्बंध में डॉ. जैन ने धवला-टीका के प्रमाण से लिखा है कि यदि छप्रस्थों (अल्पज्ञों) का कथन राग, द्वेष और भय से रहित आचार्य-परम्परा का अनुसरण करता हो, वीतरागता का जनक हो, अहिंसा का पोषक हो तथा रत्नत्रय के अनुकल हो तो प्रामाणिक है अन्यथा नहीं। किन्तु प्राचीन आचार्यों के सम्बन्ध में स्याद्वाद-सिद्धांत के अनुसार समन्वय का सुझाव दिया है क्योंकि उनकी राय में आगमों में कुछ कथन निश्चयनयाश्रित है, कुछ विविध प्रकार के व्यवहारनयों के आश्रित हैं, कुछ उत्सर्ग मार्गाश्रित है तो कुछ अपवादमाश्रित है। इसी प्रकार उनके अनुसार पौरुषेयता अप्रमाणता का कारण नहीं है। जैनागम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य हैं। पूर्वाचार्यों की निष्पक्ष दृष्टि के प्रमाणस्वरूप उन्होंने धवला का एक प्रसंग उद्धृत किया है ... 'उक्त (एक ही विषय में) दो (पृथक्-पृथक) उपदेशों में कौन-सा उपदेश यथार्थ है, इस विषय में एलाचार्य का शिष्य (वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता क्योंकि इस विषय का कोई न तो उपदेश प्राप्त है और न दो में से एक में कोई बाधा उत्पन्न होती है, किन्तु दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिए, इसे जानकर कहना उचित है। २५४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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