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________________ अग्निमीळे =अग्नि की स्तुति से आरम्भ है और कश्यप-आर्ष उसके प्रथम मण्डल का ९९वां सूक्त है । अतः सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि वैदिक ऋषिगण कैसेकितनी स्तुतियां करते थे। ईळ स्तुती (ईड स्तुती) का भागवतकार ने भी अनेकशः प्रयोग किया है। इसलिए डॉ. पांडेय के इस निष्कर्ष को माना जा सकता है कि "वैदिक काल की तन्वागी स्तुति प्राविणी भागवतकाल तक आते-आते समस्त वसुन्धरा को आप्यायित करती हुई विराट रूप धारण करती है।" श्रीमद्भागवत में स्तुतियों का सांगोपांग विवरण है। सकाम-निष्काम-दोनों प्रकार की १३२ स्तुतियां वहां उपलब्ध हैं। उनका स्वरूप, मनोविज्ञान, वस्तु विश्लेषण काव्य तत्त्व, रस, अलंकार, भाषा, छन्द आदि विविध पक्षों से समीक्षात्मक अध्ययन यहां हुआ है। यह भक्ति-दर्शन का सटीक विवेचन है। छपाई, गेटअप और प्रस्तुतीकरण भी मनोहारी है । जिज्ञासुओं को सहज-सुलभ होने के लिए ही संभवतः इसका मूल्य भी कम रखा गया है । प्रत्येक भक्त हृदय, अध्येता के लिए यह ग्रन्थ संग्रहणीय ३. जयोवय-महाकाव्य (उत्तरांश) ___ महाकवि भूरामल (आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज), ज्ञानोदय-प्रकाशन, पिसनहारी, जबलपुर-३, प्रथम संस्करण-सन् १९८९ मूल्य-७०/- रुपये। आचार्य ज्ञानसागरजी एक विलक्षण व्यक्तित्व के महापुरुष थे । स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में रह कर उन्होंने शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की, किन्तु उपाधियां पाना उनका उद्देश्य न था। डॉ० रतन चन्द्र जैन के अनुसार वे जैन विद्या के अध्येता थे और उस समय जैन विद्या के अधिकांश ग्रन्थ अज्ञात, अनुपलब्ध और अप्रकाशित थे सो उनकी शिक्षा समाप्त हो गई और विद्यार्जन शुरू हो गया। फलतः उन्हें जो भी ग्रन्थ मिला उसे आद्योपांत पढ़ते गए और ग्रन्थ मिलने बन्द हुए तो शिक्षा समाप्त मानकर अपने पैतृक गांव राणोली (सीकर) आ गए । यहां राणोली में रहकर उन्होंने साहित्य-सर्जना को अपना ध्येय बनाया और दयोदय, ज्ञानोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय, भद्रोदय, जयोदय आदि संस्कृत में तथा भाग्योदय, विवेकोदय, ऋषभावतार इत्यादि हिन्दी में, सब मिलाकर २४ ग्रन्थ लिखे। __ सुलोचना स्वयंवर अथवा जयोदय-महाकाव्य अधुनातनतन जैन साहित्य का अद्भुत ग्रन्थ है । विक्रमी सं० २००७ में जब इसे मूलरूप में प्रकाशित किया गया तो विद्वानों ने इसके कवि को असाधारण कोटि का कवि माना और काव्य का हार्द समझने के लिए स्वयं कवि से ही उस पर स्वोपज्ञ टीका लिखने का आग्रह किया गया। महाकवि द्वारा टीका लिख देने पर भी स्व. पं० हीरालाल शास्त्री, पं० अमृतलालजी साहित्याचार्य एवं पं० गोविन्द नरहरि बैजापुरकर ने उस टीका के आधार पर प्रथम १३ सगों का हिन्दी अनुवाद किया जो 'ज्ञानसागर ग्रन्थमाला, व्यावर' से सन् १९७८ में प्रकाशित हुआ किन्तु पं० हीरालालजी के दिवंगत हो जाने से शेष १४ से २८ सर्गों का अनुवाद कार्य नहीं हुमा। बाद में पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने यह अनुवाद किया जो सन् १९८९ में जयोदय-महाकाव्य-उत्तरांश रूप में 'ज्ञानोदय प्रकाशन, खंड २०, अंक ३ २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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