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२. श्रीमद् भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
-- डॉ० हरिशंकर पांडेय; जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं; प्रथम संस्करण - १९९४; मूल्य - १५१ /- रुपये ।
प्रस्तुत ग्रंथ का अवलोकन जिन महानुभावों ने किया है उन्होंने लिखा है- 'श्री पांडेय का श्रम अपने आप में सार्थक है ।' 'समीक्षा के आवश्यक तत्त्व हैं--- अध्ययन, चिन्तम और मनन । प्रस्तुत प्रबन्ध में उन सबका आपात दर्शन होता है ।' 'लेखक की समीक्षाशक्ति अत्यन्त प्रशंसनीय है ।' 'मेरी जानकारी के अनुसार श्रीमद्भागवत की स्तुतियों पर इस प्रकार का यह सर्वप्रथम ग्रन्थ है ।' 'डॉ० पांडेय ने श्रीमद्भागवत की स्तुतियों
शोध के विविध आयामों से बहुत अच्छा वैदुष्यपूर्ण, गम्भीर, विश्लेषणात्मक विवेचन किया 1' क्रमशः गुरुदेव तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ, डॉ० नथमल टाटिया, श्रीचंद रामपुरिया और मांगीलाल जैन के लिखे ये वाक्य निस्सन्देह प्रस्तुत ग्रन्थ का यथायोग्य सत्कार है ।
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भागवती संहिता सात्वती श्रुति है । इसमें सांख्य, योग, मीमांसा, न्याय, वेदांत आदि का समन्वय भक्ति रूप में हुआ है । भक्ति मीमांसा सूत्र (४.१.७) में लिखा है -- "भक्ति रेव परमः पुरुषार्थो मोक्षस्यापुरुषार्थत्वादिति तु भागवता : " -- यह संभवतः श्रीमद्भागवत के कारण ही लिखा गया है । ऐसे 'भक्ति कल्पतरु' से स्तुतियों का दोहन और उनके हार्द को खोलकर भक्त - हृदय को आप्लावित करना सहज नहीं हो सकता किन्तु डॉ० हरिशंकर पांडेय ने उसे अपने पूज्य पिता डॉ० शिवदत्त पांडेय और मगध विश्वविद्यालय संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ० राय अश्विनीकुमार के कृपापूर्ण अनुग्रह और अपने अथक अध्यवसाय से सम्भव बना लिया - ऐसा लगता है ।
वस्तुतः भक्ति का उद्गम बहुत प्राचीन है । यह जीव और परमात्मा के बीच उपासक और उपास्य का भाव उत्पन्न करती है । भक्ति-मीमांसाकार कहता है - भक्तेः फलमीश्वर वशीकार: और शांडिल्य भक्ति सूत्रकार मानता है - भक्ति: प्रमेया श्रुतिभ्यः । यही नहीं उपनिषद् भी भक्ति को अपरिहार्य कहते हैं और उसी से ज्ञान तत्त्व स्पष्ट होना स्वीकार करते हैं-
यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथिताह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥
-श्वेताश्वेतर (६.२३)
ऋग्वेद में तो भक्तिपरक स्तुतियों का भण्डार था जो कालक्रम से विलुप्त और सूक्ष्म हो गया है । बृहद्देवता ( ३.१३०) में कश्यप - आषं नामक एक " जातवेदस सूक्त" होने की जानकारी मिलती है। उस सूत्र में एक-एक ऋक् (ऋच स्तुती) की वृद्धि होती थी और कुल पांच लाख चार सो निन्यानवे ऋचाओं में जातवेदस् अग्नि की स्तुति पूर्ण होती थी
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चाधा सहस्रन्तं सूक्त नानाविधं भवेत् । नवनवतिः पंचलक्षाः ऋचः स्युः सचतुःशतम् ॥
- वर्तमान में यह सूक्त उच्छिन्न हो चुका है किन्तु ऋग्वेद की प्रथम ऋचा
तुलसी प्रज्ञा
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