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________________ पिसनहारी' से प्रकाशित हुआ है । ___ जयोदय-काव्य की कथावस्तु भोग से योग, परिग्रह से त्याग और वीरता से शांतिमयता की ओर ले जाने वाली है। इस कथा के उपजीव्य साहित्य में महासेनकृत सुलोचना कथा, गुगभद्रकृत महापुराण के अन्तिम सर्ग, हस्तिमल्लकृत सुलोचना नाटक, वादि चन्द्रभट्टारककृत सुलोचना चरित और कामराज एवं प्रभुराज द्वारा रचे गए जयकुमार चरित आदि हैं। स्वयं कवि भूरामलजी ने उसे नानानव्य निवेदन, नव्यापद्धति, सुधाबन्धूज्ज्वल, अतिनव्य, अतिललित और मञ्जुतम काव्य की संज्ञाओं से अभिहित किया है । सर्ग-१, ३, १५, २२, २४, २७ के अन्त में कवि द्वारा प्रयुक्त ये विशेषण अपने श्रीकाव्य के प्रति उसकी अतिरिक्त सावधानी और सावचेती की ओर इंगित करते हैं। प्रस्तुत उत्तरांश में १४ वां सर्ग नदीतीरोद्यान पर वायुसेवन, १५वें सूर्यास्त और चन्द्रोदय, १६वें निशीथोत्तर पान गोष्ठी, १७वे सुरतापहार, १८वें में सुरतोत्तर प्रभात वर्णन, १९वें में प्रभात वन्दना, २०वें में जयकुमार का चक्रवर्ती भरत से वार्तालाप, २१वें में हस्तिनापुर को प्रस्थान, २२वें में जयकुमार और सुलोचना मिलन, २३वें दम्पत्ति वैभव वर्णन, २४वें तीर्थयात्रा, २५वें वैराग्य, २६वें अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक २७वें दीक्षा और २८३ उग्रतप का वर्णन है। पन्नालालजी ने १७वें सर्ग का हिन्दी अनुवाद नहीं किया। उसे संभोग शृंगार का वर्णन बताकर छोड़ दिया और १८वें सर्ग में प्रभात वर्णन के १०४ श्लोकों में १७ श्लोकों पर अपने विचार सम्पादकीय प्रस्तुति में लिख दिए । यह संभोग शृंगार वर्णन से बचने की चेष्टा है जो समीचीन नहीं लगती । वर्धमान चरिसकार ने लिखा है-'न चारुतापि सुमगत्वविहीनः ।' सौन्दर्य-विवरण प्रकृतिमूलक और कलामूलक दोनों प्रकार का हो सकता है किन्तु सौन्दर्य विश्लेषण बाद जीवन-संभोग का वर्णन भी आवश्यक है । वनविहार, जलकेलि, उपवन यात्रा, संभोग क्रीड़ा, गोष्ठी समवाय आदि प्रत्येक जैन काव्य में देखे जा सकते हैं । इसी प्रकार शारीरिक मिलन से पूर्व उल्लास, पुलक, आनन्द और पीड़ा का अनुभव भी स्वतः वर्ण्य बन जाता है । नैषध काव्य में शृंगाररस का बहुविध परिपाक हुआ है। कवि मुनिभद्र ने शांतिनाथ चरित में माघ और नैषध से श्रेष्ठ काव्य लिखने की प्रतिज्ञा की किन्तु वे उसे पूरी नहीं कर सके । महाकवि भूरामल ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की, फिर भी दोएक उदाहरण देखिए(१) नैषध (६.३०) छायामयः प्रैक्षिकयापि हारेनिजे स गच्छन्नथनेक्षमाणः । तच्चिन्तयान्तनिरचायिचारू स्वस्यैव तन्व्या हृदयं प्रविष्टः ।। जयोदय (१७.२८) निचुम्बने ह्रीणतयानतास्या स्विन्ने ह्रदीश प्रतिबिम्ब भाष्यात् । समुन्नमय्याशुमुखं सुखेनबाला ददौ चुम्बनकं तु तेन ॥ नषध की नायिका ने अपने हार में जाते हुए नायक की छवि देखी और फिर २४८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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