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गया हैं कि अहिंसा के अंगभूत दया व अनुकम्पा से साधक के भीतर रही हुई परूषता व कृपणता (क्रूरता) की परिशुद्धि होती है । ध्याता किसी के साथ क्रूर या कठोर व्यवहार नहीं कर सकता। ध्यान की प्रशस्तता करुणा की वृद्धि करती है । वैसे देखा जाए तो 'व्रत' और 'अवत' की बात कहकर सिद्धसेन दिवाकर ने संपूर्ण यम की साधना का समावेश कर लिया हैं । व्रत और उपव्रत की साधना लक्ष्य की सतत स्मृति और भावक्रिया की पुष्टि के लिए आवश्यक
घृणानुकम्पे पारूष्यकार्पण्यपरिशुद्धये ।
व्रतोपव्रतयुक्तस्तु स्मृतिस्थैर्योपपत्तये ।। अन्तःशुद्धि
जहा तक पतंजलि के 'नियम" के स्वरूप को समझे तो वहाँ अन्तः के साथ साथ बाह्य शुद्धि पर भी बल दिया गया है। सिद्धसेन दिवाकर ने बाह्य शुद्धि की ओर कोई संकेत नहीं किया है, किन्तु आंतरिक शुद्धि की बात "शेषाशयविशोधनः" पद से अवश्य अभिव्यक्त की है । उन्होंने स्वाध्याय पर बल देते हुए यहां तक कहा है कि मोक्ष की सिद्धि तत्त्वज्ञान से ही सम्भव है-"तत्त्वज्ञानं पर हितम"। तपस्या का समर्थन "उपधानविधिश्चित्र" कहकर किया है। आसन
___शारीरिक सुदृढ़ता व स्वस्थता ध्यान की प्रथम आवश्यकता है। तित्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने उत्तम शारीरिक संगठन वाले व्यक्ति ही ध्यान कर सकते हैं, इस बात को "उत्तमसंहननस्य पद से व्यक्त किया है । शारीरिक स्थिरता" सुदृढ़ता हेतु साधक के लिए आसन (शारीरिक व्यायाम), शाणायाम व प्रत्याहार की साधना का विधान किया गया है । शरीर जितना दढ़ होगा एकाग्रता उतने ही दीर्घकाल तक सम्भव हो सकेगी। इस महत्त्वपूर्ण प्य की ओर इंगित करते हुए कहा गया है
स्वस्तिकाद्यासनं कुदिकाग्रसिद्धये ।। ITणायाम
प्राण के नियंत्रण व मन की स्थिरता में प्राणायाम बहुत लाभप्रद है । रीरिक व मानसिक जड़ता तथा दोषों को दूर करने में व स्फूर्ति पैदा करने प्राणायाम की उपयोगिता निर्विवाद है। इतना ही नहीं अनेक प्रकार की न्धयों (सिद्धियों) की प्राप्ति प्राणायाम से होती है ।
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