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प्रत्याहार व धारणा
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प्रत्याहार की साधना इन्द्रियों की अपने विषयों के प्रति होने वाली गति को निरूद्ध करने से ही संभव है !" और धारणा ध्यातव्य विषयों में एकाग्र होने का नाम है । ध्यान द्वात्रिंशिका में प्रत्याहार व धारणा शब्द का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं हुआ है किन्तु उसकी ओर संकेत २५ वें श्लोक में अवश्य किया गया है। वहां पर क्रूरता, क्लेश-युक्त एवं हिंसात्मक निमित्तों से दूर रहने की बात कही गई हैं । इस हेतु ध्यातव्य विषय मन, शब्दादि विषय एवं शरीर दर्शन पर बल दिया गया है
ध्यान
प्राणायामो वपुश्चित्तजाड्य दोषविशोधनः । शक्त्युत्कृष्टकलत्कार्यः प्रायेणैश्वर्यसत्तमः ॥"
समाधि
जैन परम्परा सम्मत प्रशस्त ध्यान के दो प्रकार हैं-धर्म्य व शुक्ल । इन दोनों का उल्लेख प्रस्तुत द्वात्रिंशिका में हुआ है । आस्रव (बन्धन की प्रक्रिया) के निरोध के फलस्वरूप कषायों (आंतरिक दोषों) का उपशमन ही धर्म ध्यान का लक्षण बताया गया है । इससे आगे साधक शुक्ल ध्यान की और अग्रसर होता है। जहां पूर्ण विशुद्धि को पाता है । साधक और साध्य एक हो जाते हैं ।
ध्याता और ध्येय
इत्याखव निरोधोऽयं कषायस्तम्भलक्षणः । तद्धर्म्यमस्माच्छुक्लं तु तमः शेषक्षयात्मकम् ।। "
क्रूरक्लिष्टवितर्कात्म-निमित्तामयकण्टकान् ।
उद्धरेन् मतिशब्दादिवपुः स्वाभाव्य दर्शनात् ॥ "
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समाधि चेतना की निर्विकल्प दशा है । इसमें ध्याता, ध्यान व ध्येय का पृथक्करण लय को प्राप्त हो जाता है । सर्व जागतिक अथवा बाह्य प्रपंच से उपरत होकर अबाधित मानन्दानुभूति का नाम ही समाधि है । इस दशा का मात्र अनुभव ही संभव है, निर्बंचन नहीं । इस अलौकिक स्थिति को चित्रित करते हुए कहा गया है
सर्वप्रपंचोपरतः शिवोऽनन्यपरायणः । सद्भावमात्रप्रज्ञप्तिनिरूपारव्योऽथ निर्वृतिः ॥
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पातंजल योग-दर्शन में समाधि का स्वरूप उपरोक्त रूप से ही प्रकट किया गया है । और कुछ नहीं केवल चेतना की अनुभूति का नाम हीं समाधि ।" यह स्थिति शुक्ल ध्यान के अन्तिम चरण समुच्छिन्न क्रिया अनि
तुलसी प्रज्ञ
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