SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रत्यक्ष सिद्धो भवतीति मन्ये, पर्यायवादोर्हदुपासकानाम् ॥' (क) मेधावी-बालक रत्नपाल इतना प्रतिभा सम्पन्न था कि गुरु गृह में जाकर अल्पकाल में ही विविध विद्याओं में निष्णात बन गया, मानो पूर्व जन्म से सभी विद्याओं को वह जानता हो। उत्प्रेक्षा के माध्यम से इस रूप का रमणीय बिम्बनद्रष्टव्य है---- लालायमानो ललितान्नपानः, सद्यः क्रमेणाध्ययने प्रवृत्तः । अध्येतविद्यामनवद्यरूपां, प्राशिक्षितान्तर्गतपाठवद् द्राक् ॥ (ग) युवक–रत्नपाल का जैसा बाल्यकाल सुन्दर था वैसी जवानी भी। उसके युवावस्था के आगमन को जानकर राजा ने गुण-शील-लक्षण सम्पन्ना, कोशलराज की पुत्री सुकोशा के साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार कर दिया। इस अवसर का बिम्बन मात्र एक श्लोक में कवि महाप्रज्ञ ने किया वयो द्वितीयं स इयाय तहि, सुकोशया कोशलराजपुत्या। सत्रा विवाहो विहितोऽथ पित्रा, नोल्लंघ्यते यद् महताधिकारः ॥ (घ) अन्याय-विनाशक-विवेच्य चरितकाव्य में नायक का दर्शन अन्याय-विनाशक और स्वाभिमानी राजा के रूप में होता है । सूर्य के साथ स्पर्धा के भाव से युक्त होकर राजा अपनी राज्यसभा में उपस्थित होता अन्यायवृत्रप्रतिघाततो न ___ विवस्वतो न्यूनपदं नयामि । स्पर्धिष्णुरेव वमलञ्चकार, श्री रत्नपालो नृपतिः समज्याम् ।।४ (ड) भ्रमणशील–'सूर्य क्यों परिक्रमा कर रहा है ? '५ इस शंका के समाधान में एक सभासद द्वारा यह कहे जाने पर कि 'प्रदेशभ्रमण विना ख्याति की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए सूर्य परिक्रमा कर रहा है" राजा देशाटन के लिए निकल जाता है । मार्ग में वृक्ष ही उसके लिए प्रसाद बने । पंक्षियों के शब्द ही मंगल पाठकों के शब्द थे! सौधंद्रुमाः पत्रमिहाऽऽतपत्रं, ___ सिंहासनं भूमितलं पवित्रम् । खण्ड १९, अंक ४ २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy