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पतत्तिपत्राणि च चामराणि,
रुतं खगानां खलु बन्दिबोधः ।। (च) पराक्रमी-उसके शारीरिक पराक्रम और हस्ति-शिक्षा नैपुण्य का दर्शन तब होता है जब वह एक उन्मत्त हाथी को वैसे ही स्तंभित कर देता है जैसे कोई तत्वविद् अपने वादी को स्तम्भित कर देता है
इतश्चदन्ति प्रवरेण शुण्डा
दण्ड समुत्पाटयतोपयातम् । तदेभशिक्षा प्रवरेण राज्ञा,
__ सस्तम्भितस्तत्त्वविदेव वादी ॥' (छ) पृथिवीपति-दिव्य-युवति उसके गले में माला डालकर स्तुति करती है । स्तुति में राजा के विभिन्न गुणों पर प्रकाश डाला गया है। शत्रुरूपी अन्धकार का विनाशक, जगत् के लिए अगम्य गति, रम्यमति, पुण्यकमल का सरोवर, वांछाकल्पतरु, कवियों द्वारा स्तुत्य, पृथिवीपति, नवमंगल का कर्ता, शत्रु-समूह को कम्पित करने वाले तथा जगदोद्धारक आदि का रमणीय रूपांकन हुआ है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है
जय जय वीर ! किरीटमणे ! जय जय दस्युतमोऽभ्रमणे । जय जय जगताऽगम्यगते ! जय जय सततं रम्यमते ॥ जय जय सुकृतम्भोजसरो ! जय जय वांधितकल्पतरो ! जय जय कविभीतनुते !
जय जय सकल धराधिपते ।। (ज) आश्चर्यित-अचानक अचिन्त्य की प्राप्ति होने पर व्यक्ति का आश्चर्यित होना स्वाभाविक ही है। अनिन्द्य सुन्दरी के द्वारा गले में माला डाला जाना तथा स्तुति कर मुस्कराते हुए प्रकट होना किस जीवित-हृदय में आश्चर्य पंदा नहीं करता ? राजा की भी यही स्थिति है । वह आश्चर्यरस की चोटी पर पहुंच गया---
वाणीमिमां प्रेम रसानुकूला,
श्रुत्वाश्रितश्चित्ररसस्य चूलां । सहाकुरां तद्हृदयोर्वरां स,
तत्प्रश्नवर्षेण चकारचारु ।। (झ) निर्लोभी-वही राजा अपने धर्म-पालन में समर्थ हो सकता है, जो सर्वथा लोभ रहित हो। राजा रत्नपाल इस गुण से युक्त था। युवति के द्वारा अपनी कथा सुनाने के क्रम में यह बताए जाने पर कि 'मेरे पिता
तुलसी प्रज्ञा
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