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________________ प्रतिपादित करते हुए आचार्य कहते हैं - ताणि इमाणि सुव्वय ! महव्वयाई कहियाणि य भगवया । अर्थात् ये लोगों के सम्पूर्ण हितों के प्रदाता, संयम रूप, शील विनय गुणयुक्त, श्रेष्ठ, गुणसमूह, सत्य, आर्जव, व्रतसम्पन्न, नारक, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च रूप चतुर्गति विध्वंसक, कर्मरज विदारक, भवशत विनाशक, दुःखशत विचमोक, सुखशत प्रवर्तक, कायर पुरुषों के लिए दुस्तर, सत्पुरुष विषेवित एवं निर्वाण गमन का मार्ग हैं । प्रश्न व्याकरण में प्रयुक्त ६० अहिंसाभिधान अहिंसा के निषेधात्मक और विधेयात्मक उभय स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं १. (क) निषेधात्मक स्वरूप-अहिंसा को अप्पमातो (अप्रमाद) कहा गया है । 'प्रमादविवर्जनमप्रमादः' अर्थात् प्रमाद का विवर्जन अप्रमाद है। प्रमाद का अर्थ है कषाय । कषायों का परित्याग अथवा मद्य, विषय, कषाय, निन्दा और विकथारूप पांच प्रमादों का परित्याग अप्रमाद है। इन प्रमादों का परित्याग ही अहिंसा है इसलिए इसे अप्रमाद कहा गया। यह अभय है । अहिंसा की गोद में आकर सम्पूर्ण प्राणिजगत् अभय हो जाता है । अभय का कारण होने के कारण अभय को अहिंसा-पर्याय के रूप में उपस्थापित किया गया। 'सव्वस्स वि अमाघाओं अहिंसा--सभी प्राणियों के घात का परित्याग स्वरूप है। मा का अर्थ है लक्ष्मी। वह दो प्रकार की होती है-धनलक्ष्मी और प्राणलक्ष्मी । इनका घात माघात है। इनका घात न करना अमाघात लिये है । अर्थात् सभी प्राणियों के त्राणकारक होने के कारण इसे अमाघात कहा गया। यह नार्थ का प्रसज्य-निषेधार्थ संद्योतक अभिधान है। (ख) विधेयात्मक स्वरूप- पूर्व विवेचित ननर्थ का पर्युदासनिषेध यहां विवेच्य है। अहिंसा का अर्थ हिंसा का अभाव तो है ही अहिंसा के सदृश जीवरक्षा, दया, करुणा, सेवा आदि भाव भी अहिंसा है। प्रश्न व्याकरण में इस स्वरूप के विवेचक अनेक अभिधानों का विनियोग हुआ है-दया, सम्मत्ताराहणा, बोही, नन्दा, भद्दा, विसिदिट्ठी, समिई. रक्खा, शिव, जयणं, अस्साओ, वीसाओ, खंति, कल्लाण', पमाओ, विभूइ, सील, सांति आदि । दया-'दयन्तेऽनया इति दया' अर्थात जिसके द्वारा प्राणियों की रक्षा की जाती है वह दया है।४९ 'दीयते इति दया अर्थात् जिसके द्वारा सहानुभूति प्रकट की जाती है वह दया है। दुःखित प्राणियों की रक्षा करना दया है। अहिंसा प्राणियों की रक्षा करती है, इसलिए उसका दया अभिधान यथार्थ है। सम्मत्ताराहणा - अहिंसा सम्यक्त्वाराधना रूपा है । प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्था से व्यवहार सम्यक्त्व है। अहिंसा की आराधना खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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