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प्रथम संघरद्वार-प्रश्न व्याकरणकार ने संवरद्वार-निरूपण प्रसंग में प्रथम अहिंसा का निरूपण किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में यह विचार्य है क्योंकि अहिंसा सम्पूर्ण षट्कायिक जीवों के लिए मंगल कारिणी है।
द्वितीय कारण यह है कि सम्पूर्ण संसार हिंसा से पूर्णतया प्रभावित होता है । हिंसा से त्रस्त प्राणिमात्र के लिए अहिंसा माता की तरह शांतिदायिका बन जाती है। अन्य व्रतों की अपेक्षा अहिंसा का क्षेत्र व्यापक है, इसलिए अहिंसा को प्रथम-संवरद्वार के रूप में आख्यात किया गया है।
तीसरा तथ्य यह है कि संसार में किसी भी तरह का पाप हिंसा कहलाता है। झूठ बोलना, चोरी करना, शोषण करना आदि भाव हिंसा के अन्तर्गत आते हैं। इसी प्रकार अहिंसा के ग्रहण से सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रहादि का भी ग्रहण हो जाता है। दशवकालिक चूर्णि में कहा गया है कि
__“अहिंसाग्गहणे पंचमहव्वयाणि गहियाणि भवंति ।"
अहिंसा शेष संवर, समस्त व्रत, नियम, उपासना, त्याग, संयम, प्रत्याख्यान आदि की जननी है। महाभारतकार ने इसे सकलधर्म कहा है--
अहिंसा सकलो धर्म हिंसाधर्मस्तथाहितः । अनुशासन पर्व में इसकी श्रेष्ठता की उद्घोषणा की गई है
सर्व यज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम् । सर्वदानफलंवापि नैतत् तुल्यमहिंसया ॥"
xxx अहिंसा धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु परमं पदम् ।
अहिंसाया वरारोहे कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥४५ अहिंसा संवर क्यों ?
जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत जीव अजीवादि६ सात तत्त्वों में से संवर एक प्रमुख तत्त्व है। यह मोक्ष का साधक है । रागादि के कारण आत्मा कर्मों से बन्ध जाती है, उसको आश्रव कहते हैं। कर्मागमन आश्रव है। कर्म निरोध संवर है : आश्रव निरोधो संवर ।४७ अर्थात् आश्रव को रोकना संवर है। 'संवियन्ते प्रतिरूध्यन्ते आगन्तुक कर्माणि येन स संवरः संवरण मात्रं..." प्रतिरोधनमात्रं वा संवरः' अर्थात् भविष्य में आने वाले कर्म, जिस शुद्धभाव के परिणमन से रुक जाते हैं, उसे भावसंवर, और आने वाले पुद्गल कर्मों का रुक जाना द्रव्य संवर है। अहिंसा संवर रूप ही है क्योंकि इसके द्वारा आश्रव का निरोध होता है। मकान में प्रवेश करने के द्वार के समान अहिंसादि संवर का द्वार-उपाय है' इसलिए इसे संवरद्वार कहा गया है। इसका महत्त्व
तुलसी प्रज्ञा
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