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________________ २. प्राणव्यारोपण हिंसा है 'प्रमयोगात् प्राणव्यारोपणं हिंसा अर्थात् प्रमादयुक्त जीव, काय, वचन एवं मनोयोग द्वारा प्राण व्यारोपण करता है, उसको हिंसा कहते हैं। मारण, प्राणातिपात, प्राणवध, देहान्तर संक्रमण, प्राणव्यारोपण आदि हिंसा के समानार्थक शब्द हैं ।" बाह्यांग छेदन को प्राण व्यारोपण कहते हैं। कषायों के उदय से मन, वचन, कायादि द्वारा द्रव्य-भाव रूप दोनों प्राणों को घात करना हिंसा है यत्खलु योगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यारोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥९ ३. द्वेषिकी, कायिकी, प्राणघातिकी, पारितापिकी, क्रियाधिकरणी आदि पांच प्रकार की क्रियाओं को हिंसा कहते हैं----- __पादोसिय अधिकरणीय कायियपरिदावणादिवादाए । ___ एदे पंचपओगा किरिआओ होंति हिंसाओ। हिंसा के चार भेदों का उल्लेख मिलता है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी एवं विरोधी । संकल्पी हिंसा प्रमादयुक्त होकर जान बूझकर की जाती है। अर्थोपार्जन निमित्त उद्योगी, घरेलु कार्यों में होने वाली आरम्भी एवं युद्धादि में होने वाली विरोधी हिंसा है। मुनि-महाव्रती के लिए ये चारों त्याज्य हैं। लेकिन गृहस्थ के लिए सर्वथा परित्याग संभव नहीं है। सूत्रकृतांग, उपासक दशाध्ययनादि ग्रंथों में मन, वाणी और शरीर तीनों से हिंसा नहीं करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। प्रश्न व्याकरण में हिंसा को प्रथम आश्रव (अधर्म) द्वार कहा गय। है-'पढमं अधम्मदारं । ४१ वहीं पर प्राणबध को चंड, रुद्र क्षुद्र, साहसिक , अनार्य, निघुण, नृशंस, महाभय, प्रतिभय, अतिभय, भयानक, त्रासक, उद्वेजक, निरपेक्ष, निर्धर्म, निष्पिपास आदि कहा गया है।४२ कुल तीस पर्याय शब्दों का निर्देश भी प्राप्त होता है । 3 इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि मन, वचन, काय से षटकायिक जीवों को मारना, कष्ट देना या अपकार करना हिंसा है । इसका परित्याग एवं दया करुणा, अनुकम्पा आदि का विकास अहिंसा है । भगवती अहिंसा-शिवरूप, प्रसन्नता, सम्पन्नता, समृद्धि, श्रेष्ठता, उत्कर्ष ज्ञान, वैराग्य एवं वीर्यादि को भग कहते हैं जो भग से पूर्ण हो वह (स्त्रीलिङ्ग में) भगवती है 'ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भगः सोऽस्यास्तीति भगवान् स्त्रीलिङ्ग भगवतीति । अर्थात् ज्ञान-धर्म के माहात्म्य को भग कहते हैं, वह जिसमें है वह भगवान् है (स्त्रीलिङ्ग में भगवती होता है)। अहिंसा भग-- ऐश्वर्य की दात्री है इसलिए इसे भगवती कहा गया हैं। यह प्रशस्त ज्ञान स्वरूप तथा समस्त ऐश्वर्यों का निधान है। खण्ड १९, अंक ४ ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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