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________________ उतने दिन तक प्रतिदिन इसका प्रयोग होता है। 'नित्या' पद की ऐसी व्याख्या रामचंद्र-गुणचंद्र की मौलिक सूझ है। भारतीय नाट्याचार्यों ने रूपक के गेय-पदों को 'ध्रुवा' की संज्ञा से अभिहित किया है। परन्तु नाट्यदर्पणकार ने कवि अर्थात रूपककार के द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इन्हें 'कविध्रुवा' की संज्ञा प्रदान की है। नायिका-निरूपण के प्रसङ्ग में भी आचार्यों में पर्याप्त मतभेद दृष्टिगोचर होता है। भरत के अनुसार नायिकायें चार प्रकार की होती हैं. .. दिव्या, नृपपत्नी, कुलस्त्री और गणिका । परवर्ती आचार्यों को यह वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है । इसीलिए धनञ्जय, विश्वनाथादि ने नायिका के तीन ही भेद माने हैं - स्वीया, अन्या और सामान्या। नाट्यदर्पणकार ने इनसे पृथक् मत व्यक्त करते हुए चार भेद किये हैं--कुलजा, दिव्या, क्षत्रिया एवं पण्यकामिनी । इनमें से कुलजा विप्र- वणिगादिकुलसम्भूत और केवल उदात्ता होती है। दिव्या और क्षत्रिया के तीन-तीन भेद हैं-धीरा, ललिता और उदात्ता । पण्यकामिनी (वेश्या) भी ललित और उदात्ता होती है ।४२ इस प्रकार नायिकाओं के कुल (कुलजा-विप्रवणिक् =२, दिव्या=३, क्षत्रिया ३, पण्यकामिनी=२) दस भेद हो जाते हैं। धनञ्जय आदि ने केवल स्वीया नायिका के लिए ही मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा भेद स्वीकार किये है। परन्तु नाट्यदर्पणकार ने कुलजा आदि समस्त प्रकार की नायिकाओं के लिए मुग्धा, मध्या एवं प्रगल्भा भेद की कल्पना की है। वस्तुतः यह भेद तो नायिका के वय एवं प्रेमानुभव के आधार पर उनकी स्वाभाविक स्थिति परिकीया और सामान्या आदि नायिकाओं में भी कल्पित की जा सकती है। इस स्थल पर नाट्यदर्पणकार के विचार निसन्देह महत्वपूर्ण एवं ग्राह्य हैं जिसमें उन्होंने कुलजादि सभी के मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा भेद स्वीकार किये है। इस प्रकार उपर्युक्त दशविध नायिकाओं के कुल (मुग्धा १०+मध्या ३०+प्रगल्भा ३०) सत्तर भेद हो जाते हैं। ये सभी अवस्या भेद से आठ-आठ प्रकार की होने से नायिकाओं के कुल ५६० भेद हो जाते हैं। इनके भी उत्तमादि भेद से १६८० भेद हो जाते हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नाट्यदर्पणकार ... रामचंद्रसूरि एवं गुणचंद्रगणि अत्यन्त साहसी एवं मौलिक प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। उन्होंने नाट्यदर्पण में नाट्य सम्बन्धी सामग्री का नवीन ढंग से विश्लेषण किया और अपने पूर्ववर्ती समस्त नाट्याचार्यों के मतों का यथावश्यक खण्डन या संशोधन कर अनेक मौलिक उद्भावनायें प्रस्तुत की। उन्होंने केवल धनञ्जय या सागरनन्दी के मतों का ही नहीं, अपितु आचार्य भरत के मतों का भी खंडन करने में किञ्चित् संकोच नहीं किया और बड़े गर्व के साथ अपनी रचना ३०२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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