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सान्त्वना मिलने के कारण सुख का अनुभव होता है किन्तु प्रमोदवार्ता से वह उद्विग्न ही होता है । इसलिए करुणादि रसों को दुःखात्मक मानना पड़ेगा।
विप्रलम्भ शृंगार में भी दुःख का वर्णन होता है किन्तु उसे दुःखारमक नहीं माना जा सकता है क्योंकि विप्रलम्भ शृङ्गार में पुनर्मिलन की संभावना बनी रहती है । इसलिए उसे सुखात्मक रस कहा गया है ।
इस प्रकार नाट्यदर्पणकार का रस-सिद्धांत अन्य आचार्यों से नितांत भिन्न है । अन्य आचार्यों ने इसकी कटु आलोचना भी की है परन्तु इस सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि में भयानक आदि केवल दुःखात्मक न होकर सुखदुःखात्मक हैं अथवा यों कहिए कि दुःखसुखात्मक हैं । पूर्व स्थिति में ये दुःखात्मक हैं और अन्तिम स्थिति में सुखात्मक । वस्तुतः कोई भी विद्वान् उनके सम्पूर्ण ग्रन्थ के अवलोकन के उपरांत यह मानने को कदापि उद्यत न होगा कि उन जैसे तत्त्ववेत्ता और चितक आचार्य करुण आदि को केवल दुःखात्मक ही मानते होंगे। वह इसे दुःखात्मक मानते अवश्य होंगे किन्तु पूर्वस्थिति में, और अन्ततः वे उन्हें सुखात्मक ही मानते होंगे ।
नाट्यदर्पणकार ने रसानुभूति के पांच आधार स्वीकार किये हैं...
(i) लोक अर्थात् लौकिक रूप में स्थित पुरुष, (ii) नट, (iii) काव्य या नाट्य के श्रोता, (iv) अनुसन्धाता अर्थात् कवि या नाटककार और (v) प्रेक्षक अर्थात् सामाजिक। इनमें से प्रथम चारों को तो प्रत्यक्षरूप से
और सामाजिक को परोक्ष रूप से रसानुभूति होती है। इसके अतिरिक्त प्रेक्षकादि में रहने वाला रस अलौकिक और शेष में लौकिक होता है ।
नाट्यदर्पणकार ने भी अन्य आचार्यों की भांति रस के मूलतः नौ भेद ही स्वीकार किये हैं परन्तु गर्द्धस्थायी लौल्यरस, आर्द्वतास्थायी स्नेहरस, आसक्तिस्थायी व्यसनरस, अरतिस्यायी दुःखरस और सन्तोषस्थायी सुखरस का भी उल्लेख किया है । इस प्रकार नाट्यदर्पणकार ने रस-विवेचन के प्रङ्गग में एक नवीन सिद्धांत की स्थापना की। यह सिद्धांत अन्य आचार्यों को भले ही मान्य न हो किन्तु वह मौलिक एवं विचारणीय अवश्य है।
नान्दी में प्रयुक्त पदों की संख्या के विषय में प्रायः सभी आचार्य एक मत नहीं हैं । भरत और विश्वनाथ ने इसे अष्टपदा या द्वादशपदा माना है । रसार्णवसुधाकर एवं अग्निपुराण में दशपदा और प्रतापरुद्रयशोभूषण में बाईसपदा नान्दी का उल्लेख हुआ है । परन्तु नाट्यदर्पणकार ने षड्पदा या अष्टपदा नान्दी का वर्णन किया है। यहां नित्य का अभिप्राय यह है कि सभी रूपकों में नान्दी का एक ही स्वरुप होता है अथवा सभी रूपकों में इसका प्रयोग अवश्यम्भावी है या जितने दिन तक रूपक का अभिनय हो,
खण्ड १९, अंक ४
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