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उपर्युक्त भारती आदि शब्दों की व्युत्पत्ति नाट्यदर्पणकार की मौलिक सूझ है । अधिकांश आचार्यों ने भारती आदि चतुर्विध वृत्तियों के चार-चार भेद स्वीकार किये हैं परन्तु नाट्यदर्पणकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया । उन्होंने भारती वृत्ति के दो अङ्गों -- 'आमुख व प्ररोचना' और कैशिकी के केवल एक भेद 'नर्म' का ही उल्लेख किया है, शेष को छोड़ दिया है । नाट्यदर्पणकार की सर्वाधिक उल्लेखनीय मौलिकता उनके रसविवेचन के प्रसङ्ग में प्राप्त होती है । उन्होंने सभी रसों को सुखात्मक और दुःखात्मक रूप दो वर्गों में विभक्त करके प्रथम वर्ग में इष्ट विभावादि से उत्पन्न होने वाले शृंगार, हास्य, वीर, अद्भुत व शांत रस को और द्वितीय वर्ग में अनिष्ट विभावादि से उत्पन्न करुण, रौद्र, बीभत्स एवं भयानक रस को परिगणित किया है । उनकी दृष्टि में सभी रस सुखात्मक न होकर दुःखात्मक भी होते हैं । सभी रसों को सुखात्मक मानने वाले आचार्यों के मत का खण्डन करने के लिए उन्होंने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं
१. जो आचार्य सभी रसों को पूर्णतः सुखात्मक मानते हैं, वह प्रतीति के विपरीत होने से असङ्गत है । मुख्य विभावों से उत्पन्न करुणादि की दुःखमयता की बात छोड़िए काव्याभिनव में प्राप्त कृत्रिम विभावादि से उत्पन्न भयानकादि रस भी सामाजिकों में कुछ अनिवर्चनीय क्लेश- दशा को उत्पन्न कर देते हैं । इसलिए भयानकादि रसों से सामाजिक उद्वे जित हो जाते हैं । यदि सभी रस सुखात्मक होते तो सामाजिक उनसे उद्वेजित न होते । अतः करुणादि रस दुःखात्मक ही होते हैं ।
२. इन करुणादि रसों से भी सामाजिकों को जो चमत्कार दिखलायी पड़ता है, वह कवि की प्रतिभा और नट की अभिनय - कुशलता के कारण होता है । कौशलजन्य चमत्कार के द्वारा बुद्धिमान् लोग भी दुःखात्मक करुणादि रसों में भी परमानन्द की अनुभूति करने लगते हैं । जबकि वह वास्तव में सुखरूप नहीं है, क्योंकि सीता हरण, द्रौपदी - कचाम्बराकर्षण, रोहिताश्व-मरण, लक्ष्मण शक्तिभेदन आदि दृश्यों को देखने से सहृदयों को सुखास्वाद कैसे हो सकता है ? ३. दुःखात्मक भावों का अनुकरण दुःखात्मक ही होता है । अनुकरणक्रम में यदि अनुकार्यगत दुःखात्मक करुणादि सुखात्मक माना जाए तो वह अनुकरण यथार्थ नहीं होगा । अतः करुणादि रसों को सुखात्मक मानना उचित नहीं है ।
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४. इष्टजनों के विनाश से उत्पन्न करुण रस के अभिनय स्वाद होता है, वह भी परमार्थतः दुःखास्वाद ही है । के सामने यदि दुःख का वर्णन या अभिनय
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में जो सुखा
दुःखी व्यक्ति जाय तो उसे
तुलसी प्रज्ञा
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