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________________ निर्णय' नाम से प्रसिद्ध हैं। संक्षिप्तता के कारण कुछ स्थलों पर ये कारिकायें सुबोध नहीं है । अतः इन दोनों विद्वानों ने 'स्वोपज्ञविवरण' नाम से अत्यन्त सारगर्भित एवं सुस्पष्ट वृत्ति भी लिख दी। इसमें प्रतिपाद्य विषयों के स्पष्टीकरण हेतु अनेक ग्रन्थों के उदाहरण दिये गये हैं । उद्धृत ग्रन्थों में कुछ तो स्वयं रामचन्द्रसूरि के और कुछ अन्य कवियों के हैं। सामान्य रूप से नाट्यदर्पण का मूल आधार भरत-प्रणीत नाट्यशास्त्र ही है, किन्तु इसमें अनेक स्थलों पर पूर्ववर्ती अन्यान्य आचार्यों के मतों की आलोचना करते हुए अपने नवीन मंतव्यों की स्थापना भी की गयी है। इन विद्वानों ने कालिदास आदि महाकवियों के बनाये हुए अनेक रूपकों का अवलोकन एवं स्वयं भी अनेक रूपकों की रचना करने के पश्चात् अर्थात् नाट्य-लक्षण आदि का पूर्ण परिज्ञान और अनुभव प्राप्त कर नाट्यदर्पण का प्रणयन किया है। अतः स्पष्ट है कि नाट्यदर्पणकारद्वय के विचार निश्चित रूप से प्रामाणिक एवं सारगर्भित हैं। ___ नाट्यदर्पणकार--- रामचन्द्रगुणचन्द्र अत्यन्त निर्भीक एवं प्रखर प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। उन्होंने नाट्य-सम्बन्धी विषयों का नवीन ढंग से चिन्तन किया है। इसलिए नाट्यदर्पण में पग-पग पर मौलिकता दृष्टिगोचर होती है, किंतु यहां पर कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रसङ्गों की चर्चा करते हुए उनके मौलिक चिन्तन पर ही प्रकाश डालने का प्रयास किया जाएगा। __ भरत-प्रणीत नाट्यशास्त्र रूपक के दस भेद बतलाये गये हैं नाटक, प्रकरण, अङ्क (उत्सृष्टिकाङ्क), व्यायोग, भाण, समवकार, वीथी, प्रहसन, डिम और ईहामृग । यद्यपि भरत ने केवल दस रूपक भेदों का ही विवेचन करने की प्रतिज्ञा की थी तथापि नाटक और प्रकरण का लक्षण करने के बाद उन्होंने एक अन्य भेद 'नाटिका' का भी उल्लेख किया है। परवर्ती आचार्यों ने भी इसी प्रकार का दृष्टिकोण अपनाया है। परन्तु नाट्यदर्पणकार ने अपने मौलिक चिन्तन का परिचय देते हुए 'जिनवाणी' के आचाराङ्गादि द्वादश रूपों के आधार पर भरतोक्त दश भेदों मे नाटिका और प्रकरणी को मिलाकर रूपक के द्वादश भेद स्वीकार किये हैं। इन द्वादश रूपकों को भी उन्होंने वृत्तियों के आधार पर दो वर्गों में विभक्त किया है । प्रथम वर्ग में नाटक, प्रकरण, नाटिका और प्रकरणी को रखा गया है, जिनमें भारती आदि चारों वृत्तियों का प्रयोग होता है। द्वितीय वर्ग में शेष आठ रूपक आते हैं। इनमें कैशिकी को छोड़कर केवल तीन वृत्तियों का ही प्रयोग होता है । इस प्रकार वृत्तियों के आधार पर रूपकों का वर्गीकरण नाट्यदर्पणकार की अपनी मौलिक उद्भावना है। नाट्यदर्पणकार ने नाटक का जो लक्षण दिया है, उसमें अनेक मौलिक तथ्य समाहित हैं। उन्होंने नाटक का अत्यन्त संक्षिप्त एवं सारगभित २९२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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