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________________ लक्षण इस प्रकार दिया है--- ख्याताद्यराजचरितं धर्मकामार्थसत्फलम् । साङ्कोपाय-दशा-सन्धि-दिव्याङ्ग तत्र नाटकम् ॥ अर्थात् उन रूपक भेदों में से धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिविध फलों वाला, अङ्क-उपाय-दशा-सन्धि से युक्त, देवता आदि जिसमें सहायक हों, इस प्रकार का पूर्वकालीन प्रख्यात राजाओं का चरित्र प्रदर्शित करने वाला अभिनेयकाव्य नाटक कहलाता है। यहां स्पष्ट है कि नाटक में केवल भूतकालीन प्रसिद्ध राजाओं के चरित्र का ही वर्णन रहता है। वर्तमान या भावी चरित्रों का अभिनय उचित नहीं होता है। वर्तमान व्यक्ति को नेता बनाने पर तत्काल-प्रसिद्धि की बाधा से रसहानि हो सकती, साथ ही पूर्वमहापुरूषों के चरितों में अश्रद्धा भी। इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि वर्तमान नेता के प्रति सामाजिकों के मन में राग-द्वेष की भावना विद्यमान हो। अतः ऐसी स्थिति में अभिनेय चरित के साथ सामाजिकों का सम्यक् प्रकार से तन्मयीभाव न हो पाने के कारण न तो उनका मनोरंजन होगा और न उन्हें कोई उपदेश ही प्राप्त हो सकेगा । फलतः नाटक के दोनों प्रधान प्रयोजन व्यर्थ हो जायेंगे । इसी प्रकार भविष्यकालीन नेता भी नाटक के लिए उपयुक्त नहीं होता क्योंकि उसका तो कोई चरित ही नहीं रहता है। अतः नाटक में केवल भूतकालीन चरित का ही अभिनय करना चाहिए । कुछ आचार्यों ने नाटक के लिए दिव्य एवं दिव्यादिव्य नायकों की भी कल्पना की है। परन्तु नाट्यदर्पणकार को यह मत मान्य नहीं है । उनकी दृष्टि में नायक को 'राम के समान आचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं' इस प्रकार के सरस उपदेश देने के लिए होता है। देवताओं के लिए अत्यन्त दुःसाध्य कार्य की सिद्धि भी उनकी इच्छा मात्र से हो जाती है। इसलिए उनके चरित का अनुसरण मनुष्यों के लिए अशक्य होने के कारण उपदेशप्रद नहीं हो सकता है। इसलिए नायक में दिव्य पात्रों को नायक की सहायता के लिए ही रखना चाहिए। नाटक के लिए धीरोद्धतादि चतुर्विध नायकों में से किसका चयन किया जाए, इस संदर्भ में नाट्यदर्पणकार के विचार नितान्त मौलिक एवं विचारणीय हैं। धनञ्जय आदि ने नाटक के लिए केवल धीरोदात्त नायक को ही उपपुक्त माना है। परन्तु नाट्य- दर्पणकार इस मत से सहमत नहीं हैं। उनकी दृष्टि में जो लोग नाटक के नायक को केवल धीतोदात्त ही मानते हैं, वे भरतमुनि के सिद्धांत को नहीं समझते हैं और अनेक नाटकों में धीरललित आदि नायकों के भी पाये जाने से कवि-व्यवहार से भी अपरिचित प्रतीत होते हैं। इस प्रकार नाट्यदर्पणकार खण्ड १९, अंक ४ २९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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