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________________ समाज-चित्रण की भी महत्त्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है । इसमें वीर रस की प्रधानता है और यथावसर समुचित अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है। महाकाव्य में कुल २३ प्रकार के छन्द प्रयुक्त हैं जिनमें उपजाति की संख्या सर्वाधिक है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जैन-संस्कृत-वाङमय के ऐतिहासिक महाकाव्यों में चौलुक्य नरेश कुमारपाल एवं राजा वीरधवल के महामात्य वस्तुपाल के चरित्र-विषयक महाकाव्यों की संख्या अधिक है। कुमारपाल के जीवन चरित पर आधारित महाकाव्यों में कुमारपाल पर्यन्त गुजरात के चौलुक्य नरेशों का वर्णन प्राप्त होता है, जबकि वस्तुपाल से सम्बन्धित महाकाव्यों में चौलुक्य नरेशों के साथ ही प्राग्वाट वंश का भी परिचय दिया गया हैं। इस प्रकार यदि यह कहा जाए कि इस वाङमय के अधिकांश ऐतिहासिक महाकाव्य चौलुक्यवंशी नरेशों का वर्णन प्रस्तुत करते हैं तो कदाचित् अतिशयोक्ति न होगी। वस्तुतः गुजरात का मध्यकालीन सम्यक् इतिहास जैन कवियों की रचनाओं में ही मुखरित हुआ है ।१५ इन कवियों ने कुमारपाल और वस्तुपाल जैसे उदात्त चरित्र वाले ऐतिहासिक महापुरुषों को नायक बनाकर अपने काव्यों में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का समावेश किया है । इसके अतिरिक्त हम्मीर महाकाव्य अपने ढंग का एक अनोखा महाकाव्य है जिसमें चाहमान वंश का इतिहास सरस एवं रोचक शैली में अभिव्यक्त किया गया है। इसमें मध्यकालीन भारतीय इतिहास के साथ यह भी दर्शाया गया है कि हम्मीर जैसे क्षत्रिय नरेश आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान को श्रेयस्कर समझते थे। इन ऐतिहासिक महाकाव्यों की कुछ मौलिक विशेषताएं भी हैं। नायक की मृत्यु के उपरान्त रचे गये महाकाव्यों में नायक की मृत्युपर्यन्त घटनाओं का वर्णन प्राप्त होता है। इनमें वंशोत्पत्ति सम्बन्धी विवरण पौराणिक आधार पर दिये गये हैं। इन महाकाव्यों में नायक के उत्कर्ष को प्रकट करने के लिए उसकी कमजोरियों को छिपाया गया है अथवा उन्हें प्रच्छन्न रूप में व्यक्त किया. गया है ताकि नायक के चरित्र-विकास-क्रम में कोई बाधा उत्पन्न न हो सके । कुछ महाकाव्यों में प्रदत्त ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियां कहीं-कहीं ऐतिह्य प्रमाणों से मेल नहीं रखती हैं।" इन महाकाव्यों में महाकाव्य सम्मत लक्षणों का निर्वाह करने का प्रयास किया गया है। फलस्वरूप इनमें विभिन्न अवान्तर प्रसङ्गों एवं एवं वर्णन-प्रसंगों की योजना भी की गयी है। इनका अङ्गीरस वीर है परन्तु अङ्गरूप में प्रायः सभी रसों की व्यंजना हुई है। खण्ड १९, अंक ४ २८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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