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दशवर्षीय शिशु सोमचन्द्र उसे आशीर्वाद देता है। यही शिशु कालान्तर में हेमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध होता है। द्वितीय सर्ग में सिद्धराज जयसिंह संतान-हीनता से विह्वल होकर भगवान् शंकर की उपासना करता है। महादेव कुमारपाल को ही उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। ईर्ष्यावश जयसिंह सपरिवार कुमारपाल को नष्ट करने की प्रतिज्ञा करता है । वह कुमारपाल के पिता का वध करवा देता है। कुमारपाल छिपकर इधर-उधर भटकता रहता है। तृतीय सर्ग में जयसिंह की मृत्यु, कुमारपाल का राज्याभिषेक तथा आम्बड एवं कोंकण नरेश मल्लिकार्जुन के युद्ध का वर्णन है। इस युद्ध में आम्बड मल्लिकार्जुन का सिर काटकर उसे कुमारपाल को भेंट करता है।
चतुर्थ सर्ग में हेमचन्द्र की प्रेरणा से कुमारपाल जैन धर्म स्वीकार करता है । वह दुर्व्यसनों को त्याग देता है और राज्य से भी इन्हें बहिष्कृत कर देता है । पंचम सर्ग में कुमारपाल को जैन धर्म में दीक्षित जानकर काशी से एक शैव योगी आता है जो मन्त्रवल से कुमारपाल के माता-पिता को को प्रकट करता है। वे कुमारपाल द्वारा किये गये धर्म-परिवर्तन के कारण अपनी दुर्दशा व्यक्त करते हैं। इस पर हेमचन्द्र अपनी ध्यान-शक्ति से उन्हें पुनः प्रकट करते हैं । वे देवलोक में अपनी सुख-शांति का परिचय देते हैं। देवबोध नामक वह योगी हेमचन्द्र को तर्क में पराजित करने का असफल प्रयास करता है। षष्ठ सर्ग में यवनराज का आक्रमण, कुमारपाल की शाकम्भरी नरेश अर्णोराज पर विजय, सौराष्ट्र के शासक संसुर और कुमारपाल के मंत्री उदयन के मध्य युद्ध आदि ऐतिह्य घटनाओं का वर्णन है। सप्तम सर्ग में कुमारपाल वाग्भट को मन्त्री तथा आम्बड को दण्डाधिपति नियुक्त करता है।
___अष्टम सर्ग में कुमारपाल की धार्मिकता, दानशीलता, उदारता एवं गुरुभक्ति का वर्णन है । गुरु की आज्ञा से वह प्रजा को जैन-धर्म में दीक्षित करता है और उत्तराधिकारहीनों की सम्पत्ति का अधिग्रहण करना त्याग देता है । नवम सर्ग में हेमचन्द्र कुमारपाल के पूर्व भवों का वर्णन करते हैं। दशम सर्ग में कुमारपाल शत्रुञ्जय तथा गिरिनार पर्वतों की यात्रा करता है। यात्रा से पूर्व ही उसे डाहल नरेश कर्ण के भावी आक्रमण की सूचना मिलती है । इस आक्रमण से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है। इस सर्ग के शेष भाग में हेमचन्द्र एवं कुमारपाल की मृत्यु तथा उससे उत्पन्न शोक का वर्णन किया गया है।
वस्तुतः इस महाकाव्य का इतिहास-तत्त्व कुछ अस्त-व्यस्त सा है। इसमें वर्णित घटनाएं कहीं-कहीं अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से मेल नहीं खाती हैं । इसमें चरित्र की प्रधानता है। कुमारपाल, हेमचन्द्र एवं उदयन की चरित्रगत विशेषताओं को भलीभांति निरूपित किया गया है । इस महाकाव्य में
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तुलसी प्रज्ञा
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