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________________ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को उद्घाटित करते समय प्रायः इनमें सरल भाषा का प्रयोग किया गया है। ऐतिहासिक महाकाव्यों के प्रणयन में जैन-कवियों का रुझान इतिहास के साथ ही उच्चस्तरीय काव्य के निर्माण का भी था। इतिहास को काव्यात्मक विधि में प्रस्तुत करने में कल्पना, अतिशयोक्ति, कथावस्तु के अनुरूप घटना-संगठन आदि स्वाभाविक ही है। जैन-कवियों ने इन महाकाव्यों में इतिहास और साहित्य दोनों का मंजुल समन्वय स्थापित किया है । इसीलिए आज भी इतिहासकार इन महाकाव्यों की पंक्तियों को ऐतिह्य-तथ्यों की प्रामाणिकता हेतु सहर्ष स्वीकार करते हैं । सन्दर्भ १. जगडूचरित काव्य में गुजरात के श्रेष्ठी जगडूशाह का उदात्त चरित्र ___ वर्णित है। इसमें केवल ७ सर्ग हैं। २. वस्तुपालचरित के आठ प्रस्तावों में वस्तुपाल का चरित्र वर्णित है । जै० ध० प्र० सभा, भावनगर वि. स. १९७४ । ३. नाति स्वल्पाः नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह । --आचार्य विश्वनाथ, साहित्य-दर्पण, ६/१२० । ४. अभयतिलक गणि की संस्कृत टीका सहित, बम्बई संस्कृत एवं प्राकृत सिरीज से १९१५ एवं १९१५ एवं १९२१ ई. में दो भागों में प्रकाशित। ५. संस्कृत द्वयाश्रय पर अभयतिलकगणि ने वि. सं. १३१२ में और प्राकृत द्वयाश्रय पर पूर्ण कलशगणि से वि. सं. १३०७ में टीकायें लिखी हैं। ६. कीर्तिकौमुदी, सं० मुनि जिन विजय, काव्यमाला संस्कृत सिरीज बम्बई, १९६० ई० । ७. डॉ० भोगीलाल सांडेसरा, महामात्य वस्तुपाल का साहित्य मण्डल, पृ० ६०, वाराणसी, १९५९ ई० । ८. सुकृतसङ्कीर्तन, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, ग्रन्थाक ५१, सं० १९७४ । ९. वसन्तविलास, १४/३७ १०. चावड़ा वंश का शिलालेखीय उल्लेख सर्वप्रथम वि. सं. १२०८ में मिलता है। देखें- वडनगरप्रशस्ति । ११. वसन्तविलास, गायकवाड ओरियण्टल सिरीज बड़ौदा, १९१७ ई० । १२. श्री जैनसिंह मनोविनोदकृते काव्यमिदमुदीर्यते ह। वसन्तविलास, १/७५ । १३. इस संख्या में सर्गान्त में दिये गये जैत्रसिह के प्रशंसा-विषयक श्लोक भी २८८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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