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________________ कौमुदी" महाकाव्य भी महामात्य वस्तुपाल के जीवन चरित पर आधारित है। यह महाकाव्य ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । सोमेश्वर (११७९१२६२ ई०) वस्तुपाल के दरबारी कवि थे। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना वस्तुपाल के जीवनकाल में ही की थी। अतएव इसकी रचना सं० १२९६ से पूर्व अवश्य हो चुकी थी। इस महाकाव्य में ९ सर्ग हैं। प्रथम सर्ग में कवि ने पाटन नगर का वर्णन किया है। द्वितीय सर्ग में मूलराज से लेकर भीम द्वितीय तक सभी चौलुक्य नरेशों का वर्णन है जिसमें सिद्धराज जयसिंह को विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न शासक बतलाया गया है। तदनन्तर बघेला लवणप्रसाद के स्वप्न का वर्णन है। स्वप्न में उसे गुजरात की राज्य-लक्ष्मी दिखायी पड़ती है जो अपने पूर्व वैभव एवं तत्कालीन नष्टप्राय गौरव को प्रकट करती है। स्वप्न-समाप्ति के पश्चात् लवणप्रसाद अपने पुत्र वीरधवल तथा पुरोहित को कवि के पास भेजता है। कवि स्वप्न के तात्पर्य के समझाता है और राज्य-संचालन हेतु योग्य मंत्रियों के चयन की संस्तुति करता है। तृतीय सर्ग में प्राग्वाट (वणिक) वंश से सम्बन्धित वस्तुपाल के पूर्वजों का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग में वस्तुपाल और तेजपाल की मंत्री पद पर नियुक्ति और पंचम सर्ग में वस्तुपाल को स्तम्भतीर्थ का मण्डलाधिप बनाने तथा उसके द्वारा दक्षिण के आक्रमणों को रोकने की घटना का वर्णन हैं । षष्ठ सर्ग में लाट देश के शासक शङ्ख पर वस्तुपाल की विजय और विजयोत्सव का वर्णन किया गया है। सप्तम सर्ग में काव्य-परम्परागत ढंग से स्तम्भ-तीर्थ के सौन्दर्य का वर्णन है। अष्टम सर्ग में चन्द्रोदय वर्णन और अन्तिम सर्ग में वस्तुपाल के दैनिक जीवन तथा शत्रुञ्जय, गिरिनार एवं प्रभास तीर्थ की यात्राओं का भव्य वर्णन है। ___ यद्यपि यह महाकाव्य लघु कलेवर का है। फिर भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। इसमें वस्तुपाल की प्रशंसा मुक्त कण्ठ से की गयी है। महाकाव्य में विविध रसों की अभिव्यक्ति हुई है। इसमें स्वाभाविक रूप से अलंकारों का प्रयोग हुआ है। इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है । इसमें प्रकृति-चित्रण को भी यथावसर स्थान दिया गया है। सुकृतसङ्कीर्तन महाकाव्य सुकृतसङ्कीर्तन महाकाव्य के रचयिता अरिसिंह ठक्कुर हैं । ये वस्तुपाल के प्रिय कवि थे । महाकाव्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसकी रचना उस समय की गयी थी जब वस्तुपाल सत्ता के चरम शिखर पर था। इसमें वस्तुपाल के सम्पूर्ण कृत्यों का उल्लेख नहीं है जिससे स्पष्ट होता है इसकी रचना भी वस्तुपाल की मृत्यु (वि० सं० १२९६) से पूर्व हो चुकी २८० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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