SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युद्ध, भीम के पुत्रद्वय क्षेमराज एवं कर्ण की उत्पत्ति, कर्ण का राज्याभिषेक, मयणल्लदेवी के साथ उसका विवाह आदि वणित है। दशम सर्ग में पुत्र-प्राप्ति हेतु कर्ण द्वारा लक्ष्मी की उपासना करना एवं वरदान-प्राप्ति का वर्णन है। एकादश सर्ग में जयसिंह की उत्पत्ति, राज्यारोहण, कर्ण का स्वर्गगमन एवं जयसिंह की विजयों का वर्णन किया गया है। द्वादश से पन्द्रहवें सर्ग तक दैवी चमत्कारों से पूर्ण जयसिंह की विविध विजयों, धार्मिक कृत्यों एवं उसके स्वर्गारोहण का वर्णन है । सोलहवें सर्ग में कुमारपाल को राज्य-प्राप्ति, उसके द्वारा विद्रोही राजाओं का दमन एवं आबू पर्वत का माहात्म्य वर्णित है। सत्रहवें सर्ग में रात्रि, चन्द्रोदय, सुरतादि, अठारहवें सर्ग में कुमारपाल और अर्णोराज का युद्ध तथा उन्नीसवें सर्ग में अर्णोराज द्वारा कुमारपाल को अपनी कन्या प्रदान करने का वर्णन है । बीसवे सर्ग में कुमारपाल द्वारा अहिंसा का प्रचार, उसके लोकोपकारी कृत्यों एवं कुमारपाल संवत् चलाने का वर्णन किया है। प्राकृत द्वयाश्रय के प्रथम सर्ग में बन्दीजनों द्वारा कुमारपाल की कीति एवं उसकी दिनचर्या का वर्णन है । द्वितीय सर्ग में मल्लश्रम, कुञ्जर यात्रा, जिन मन्दिर यात्रा एवं जिन पूजा वर्णित है। तृतीय सर्ग में उपवन-शोभा, चतुर्थ सर्ग में ग्रीष्म एवं पंचम सर्ग में अन्य ऋतुओं का वर्णन किया गया है । षष्ठ सर्ग में चन्द्रोदयवर्णन के पश्चात् कोंकणनरेश मल्लिकार्जुन पर विजय की सूचना तथा अनेक राजाओं द्वारा कुमारपाल की अधीनता स्वीकार किये जाने का वर्णन है । सप्तम सर्ग में कुमारपाल द्वारा परमार्थ-चिन्तन, आचार्यों एवं श्रुति-देवता की स्तुति तथा अन्तिम सर्ग में श्रुति देवी के उपदेश का वर्णन किया गया है। द्वयाश्रय महाकाव्य में महाकाव्योचित समस्त लक्षण विद्यमान हैं। ऐतिहासिक शैली में लिखे गये इस महाकाव्य में इतिहास और व्याकरण का सामंजस्य अत्यन्त रोचक ढंग से किया गया है। इतिहास के अतिरिक्त इसमें तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक स्थितियों का परिचय भी दिया गया है । इसमें विविध रसों की अभिव्यंजना हुई है। वीर रस इसका अंगीरस है। शब्दों तथा अर्थों को चमत्कृत करने के लिए महाकाव्य में यथास्थान अलङ्कारों का भी प्रयोग हुआ है । निस्सन्देह, यह महाकाव्य परवर्ती ऐतिहासिक काव्यों के लिए प्रेरणा-स्रोत के रूप में उपस्थित हुआ है। कोत्तिकौमुदी महाकाव्य गुजरात के चौलुक्य नरेश वीरधवल के इतिहास-प्रसिद्ध महामात्य वस्तुपाल के जीवन चरित को लक्ष्य कर उसके जीवनकाल में ही कवियों ने ग्रंथों का प्रणयन आरम्भ कर दिया था। महाकवि सोमेश्वर विरचित 'कीत्ति खंड १९, अंक ४ २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy