SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाष्पं क्षरसि च पश्य तदाऽहं, ___रात्रि दिवमपि सदृशीकु ॥ सूर्यमुखी पुष्प की रम्यता किसे आह्लादित नहीं करती ? रत्नवती कहती है तुम सदा सूर्य की ओर अभिमुख रहते हो। कही मेरे समान तुम्हारा घूमना भी व्यर्थ न हो जाए । क्या सूर्य तुमसे प्रेम करता है-- सूर्यविकाशिन्नंशुमतो नु मुखमाधत्सेऽत्रारेकोडम् । किञ्च ममेव भ्रमणं व्यर्थं स्नेहं धत्ते त्वचि वैषोऽपि ॥3. जब रत्नवती अनन्त-पति (मोक्ष) के अन्वेषण के लिए मुड़ जाती है, तब सम्पूर्ण प्रकृति जगत् उसके लिए भव्य बन जाता है । पांचवे सर्ग में प्रकृति का सुन्दर रूप उपलब्ध होता है । लता के मानवीकरण का बिम्ब द्रष्टव्य है-स्वयमेव लता कुमारी से कहती है--- किसलयानि दलानि ममाभवन् , परिमलोच्छवसितानि सुमान्यपि । कलिकया सुषमा शिखरं गता, फलललाम तया लतिता गति ॥ अन्य-भ्रमर के स्वभाव का सुन्दर उद्घाटन हुआ है--- भ्रमर ! रे निपुणोसि कुतोऽजिता, मतिरियं परमार्थ पराङ मुखा । भ्रमसि पद्मरतो दिवसे भृशं, कुमुद मा व्रजसि क्षणदाक्षणे ॥ वायु-वायु अवस्थानुसार स्वरूप धारण करता है । सूर्य के तपने से गर्म, पानी वरसने पर ठंडा, परिमल से सुगंधित और दुर्गन्ध से दुर्गन्धित हो जाता है। इस आशय का प्रतिपादक बिम्ब द्रष्टव्य है ---- तपसि यत्तपने तपति द्रुतं, भवसि वर्षति वारिणि शीतलः । परिमलाकुल एव सुगन्धिमां स्तदितरो पि च तस्य विपर्ययात् ।। तालाब-सरोवर का मानवी कृत रूप आह्लाद्य बना है। राजा को अपने पास आते देखकर वह प्रसन्नता से ऊंचा उछलने लगा अहो ! नृपालः स्वयमद्य पालि __ मलंकरोत्यंहिरज: कर्णमें। इत्युत्कटादुच्छलति स्म मोदात्, __चलत्तरंगच्छलतः स उच्चैः ॥१ खंड १९, अंक ४ २७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy