________________
लज्जावश अपने मुख को अन्धकार रूपी वस्त्र से ढक लेती है--
इति निशम्य बभूव विभावरी,
प्रणयगर्ग वचोमृत निर्भरा । वृतमुखी तिमिराम्बरतस्त्रपाऽ
नुपमस्ति धनं महिलाश्रितम् ॥३२ रात्री मार्मिक शब्दों में राजा को प्रतिबोध देती है मनुष्य अविवेकी होते हैं । वे रहस्य नहीं जानते हैं। मेरे अन्धकार को दीप जलाकर दूर करना चाहते हैं, किन्तु अपने मन के अन्धकार को मिटाना नहीं चाहते
परमहो ! मनुजा अविवेकिनो,
नहि भवन्ति रहस्यविदः क्वचित् । अपचिकीर्षव एव तमो मम,
गृहमणे निचयान्मनसो न च ॥3 चतुर्थ सर्ग में रात्री का सामान्य (स्वाभाविक) वर्णन उपलब्ध होता है, सम्पूर्ण पृथ्वी अंधकार से व्याप्त हो गयी है, वृक्ष पक्षियों से आकीर्ण हो गए हैं तथा प्राणीजगत् गहरी नींद का आश्रय प्राप्त कर चुका है
तमसाच्छन्ना वसुधापटली,
विहगाकीर्णा पादपपंक्तिः । सातङ्का जनमानसवीथी,
सास्वापाभूल्लोचनमाला ।।३४ (ख) वनस्पति जगत्---इस उपवर्ग में पुष्प वृक्ष, अरण्यादि का बिम्ब प्रस्तुत किया जा रहा है । रत्नवती प्रिय-वियोग को प्राप्त कर अरण्य के प्रत्येक वृक्ष से अपने हृदयेश का पता पूछती है। सहकार, अशोक, शेफाली, कंटकी, केतकी, हरिचन्दन, गोशीर्ष, तालवृक्ष आदि का बिम्ब रम्य बना
रत्नवती अशोक से कहती है--तुम्हारा नाम अशोक है तुम मुझे क्यों नहीं अशोका (शोकरहिता) बना रहे हो--
नाशोकां कुरुष किमशोक !
___ मां च सशोकां प्रियविरहेण । लज्जास्पदमपि भविता सद्यो,
नाम तवेदं गुणशून्यत्वात् ।।५ शेफाली का सुन्दर बिम्ब द्रष्टव्य हैशेफाली ! त्वं रात्रावेव,
पुष्पप्रकरपतनमिषतो हि ।
२७२
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org