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पृथ्वी-तृतीय सर्ग में राजा के साथ वार्तालाप करती हुई पृथ्वी का दर्शन होता है । वार्ताक्रम में उसके सहनशीलता, क्षमारूपता और वात्सल्यता आदि महनीय गुणों का उद्घाटन होता है । जो दया दाक्षिण्य, करुणा आदि गुणों से युक्त नहीं होता है, वह पृथ्वी का स्वामी नहीं हो सकता है। स्वयं पृथ्वी के शब्द ही प्रमाण हैं...
न दयते मम संततिमेव यन्, न तनुते च परोपकृति क्वचित् । सृजति कामपि नैव विशेषताम्,
भवति फल्गु ममेश्वरनामभृत् ॥
पर्वत-मेरुपर्वत का सुन्दर वर्णन किया गया है। जम्बूद्वीप के मध्य में अवस्थित तथा देवों से आकीर्ण मेरुपर्वत औषधियों से पूर्ण हिमालय की तरह सुशोभित हो रहा है---
मध्ये स्थितो राजति तस्य मेरु:, सुधर्मसंसत्स्विव वज्रपाणिः । समाश्रितः स्वर्गसदां समूहै
र्यथौषधानां निकट हिमाद्रिः ॥"
कलागत बिम्ब-महाकवि महाप्रज्ञ कलागत बिम्बों के निर्माण में कुशल हैं। रत्नपालचरित में रस, गुण, अलंकार, रीति, छंद और सूक्तिसौन्दर्य हृद्य बना है। वीर, शृंगार, अद्भुत आदि प्रमुख रस शान्तरस के उपकारक के रूप में उपस्थित हुए हैं, लेकिन सबकी परिणति शान्त में ही होती है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है
१. वीररस-पाद टिप्पण १४ देखें।
२. शृंगार रस-चतुर्थ सर्ग में वियोग शृंगार का विस्तृव वर्णन विन्यस्त है। विरहिणी की विभिन्न अवस्थाओं का सुन्दर निरूपण हुआ है। द्रष्टव्य ४.१-१९ श्लोक तक । विरहिणी की विभिन्न अवस्थाओं में भूमिशयन ४.२५, स्वप्नदर्शन ४.२६, उन्निद्रा ४.२७, आशाभंग ४.२८, विमूढ़ावस्था ४.२८, भ्रान्ति ४.२९,३० आदि का चित्रण हुआ है ।
अलंकारो में अर्थान्तरन्यास का प्रभूत प्रयोग हुआ है (२.३, २३, ३२, ४६, ३.४ आदि द्रष्टव्य हैं)। व्यतिरेक २.३९, काव्यलिंग २.१५, रूपक २.५, उपमा २.३, २.१८, २.२५, उदात्त ३.२४ आदि का बिम्ब अत्यधिक सुन्दर बना है।
___इस प्रकार रत्नपालचरित काव्यबिम्ब की दृष्टि में पूर्णतया सफलकाव्य है।
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तुलसी प्रज्ञा
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