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________________ १७. निर्दोष-बत्तीस दोष रहित होना। १८. सारवत्-अर्थयुक्त होना । १९. हेतुयुक्त हेतुयुक्त होना । २०. अलंकृत -काव्य के अलंकारों से युक्त होना। २१. उपनीत-उपसंहार युक्त होना । २२. सोपचार-कोमल, अविरुद्ध और अलज्जनीय का प्रतिपादन करना अथवा व्यंग या हंसी युक्त होना। २३. मित-पद और उसके अक्षरों से परिमित होना। २४. मधुर-शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की दृष्टि से प्रिय होना। टीकाकार अभयदेव के अनुसार उरस्, शिर तथा कण्ठ तीनों स्थानों पर विशुद्ध प्रकार से गाया जानेवाला मृदुल गीत मृदुक कहलाता है । 'उरः कण्ठशिरोविशुद्ध मृदुकम्'। ऋभित वह गुण है जिसमें स्वर घोलना के आश्रय से रक्तिपूर्ण होता है--'यत्र अक्षरेषु घोलनया संवरन् स्वरः रंगतीव घोलनाबहुलमीत्यर्थः । घोलना संभवत: गमक का कोई प्रकार रहा हो जिसमें स्वर अपनी विशिष्ट श्रुति के अग्र तथा पार्श्व में संचार करता है । सीभर नामक गुण के अन्तर्गत स्वरों तथा अक्षरों का तुल्य प्रमाण महत्त्वपूर्ण होता है। इसका तात्पर्य संभवतः ऐसे गीत से है जिसमें स्वर-रचना के लिए आवश्यक शब्दों की ही रचना की जाती है। ‘सप्तस्वरा अक्षरादिभिः समा यत्र । ४४ स्थानांग में गीत की भणितियां-भाषा दो प्रकार की कही गई है१. संस्कृत २. प्राकृत । ये दोनों प्रशस्त और ऋषिभाषित हैं। ये स्वरमंडल में गाई जाती है। संगीत के रागों का अस्तित्व स्वरों पर निर्भर है। इन स्वरों का भी विशेष अर्थ होता है। उनसे अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं। किसी भी राग के स्वर उस राग के भावनात्मक वातावरण को प्रकाशित करते हैं । मानव-स्वभाव और संगीत का अटूट संबंध है। स्त्री स्वभाव के साथ संगीत का सूक्ष्म विवेचन स्थानांग में उपलब्ध है। कुछ अंश प्रस्तुत है-श्यामा स्त्री मधुर गीत गाती है। काली स्त्री परुष और रूखा गाती है । केशी स्त्री चतुर गीत गाती है । काणी स्त्री विलम्ब गीत गाती है। पिंगला स्त्री विस्वर गीत गीत गाती है।४७ भरत के नाट्यशास्त्र में सप्तरूप के नाम से प्रख्यात प्राचीन गीतों का वर्णन मिलता है। इन गीतों के नाम ये हैं-मंद्रक, अपरान्तक, प्रकरी, ओवेणक, उल्लोप्यक, रोविन्दक और उत्तर ।४८ ___ स्थानांग में चार प्रकार के गेयों का नामोल्लेख है-उत्क्षिप्तक, पत्रक, मंद्रक, और रोविन्दक ।४९ इनमें से दो का रोविन्दक और मंद्रक का ३८४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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