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होता है। उसके अनुसार दोष चौदह हैं---शंकित, भीत, उद्धृष्ट, अव्यक्त, अनुनासिक, काकस्वर, शिरोगत, स्थानजित, विस्वर, विरस, विश्लिष्ट, विषमाहत, व्याकुल, तथा तालहीन ।
'स्थानांग' में गीत गायन के संबंध में निम्न गुणों का उल्लेख किया
१. पूर्ण---स्वर के आरोह-अवरोह आदि परिपूर्ण होना । २. रक्त-गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना । ३. अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना। ४. व्यक्त-स्पष्ट स्वर वाला होना। ५. अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वर युक्त होना । ६. मधुर--मधुर स्वर युक्त होना। ७. सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना । ८. सुकुमार-ललित, कोमल-लययुक्त होना।
अभयदेव की टीका में इन गीतगुणों का निम्न स्पष्टी करण पाया जाता है--पूर्ण वह है जिसमें स्वर का उच्चारण उन्मुक्त कण्ठ से किया जाये । रक्त में रंजकता अथवा रसात्मकता विद्यमान होती है। विविध स्वरों का परस्पर गठन अलंकृत के लिए कारण होता है । संगीत के स्वर तथा शब्द का स्फुट उच्चारण व्यक्त कहलाता है । कोकिला के समान मधुरस्वरयुक्त गान मधुर, वेणु स्वर तथा ताल का सामंजस्य सम कहलाता है। सुकुमार वह लालित्य गुण है, जो स्वर के साथ नितान्त तादात्म्य के कारण है, गीत को मधुर बनाता है।"
नारदीशिक्षा में दस गुणों का वर्णन प्राप्त है:२~-रक्त, पूर्ण, अलंकृत, प्रसन्न, व्यक्त, विकृष्ट, श्लक्ष्ण, सम, सुकुमार और मधुर ।
स्थानांग में वर्णित गुण शृंखला में अन्य गुणों की भी प्राप्ति है९. उरोविशुद्ध-जो स्वर वक्ष में विशाल होता है। १०. कण्ठविशुद्ध-जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता ।। ११. शिरोविशुद्ध-जो स्वर सिर से उत्पन्न होकर भी नासिका से
मिश्रित नहीं होता। १२. ऋभित-घोलना--बहुत आलाप के कारण खेल-सा करते हुए स्वर । १४. पद्ध बद्ध-गेय पदों से निबद्ध रचना । अक्षरों की नियत संख्या
छन्द तथा यति के नियमों से नियन्त्रित पदसमूह ‘पद्य पद'
कहलाता है । इसे निबद्ध पद भी कहा गया है।४३ १५. समताल पदोत्क्षेप-जिसमें ताल, झांझ आदि का शब्द और
नर्तक का पादनिक्षेप ये सब सम हों एक दूसरे से मिलते हों। १६. सप्तस्वरसीभर-जिसमें सातों स्वर तंत्री आदि के सम हों
खण्ड १९, अंक ४
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