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________________ और अनागत-ये तीन ग्रह हैं। गीत, वाद्य और नृत्य के साथ होनेवाला ताल का आरम्भ अवपाणि या समग्रह, गीत आदि के पश्चात् होनेवाला ताल आरम्भ अवपाणि या अतीतग्रह तथा गीत आदि से पूर्व होनेवाला ताल का प्रारम्भ उपरिपाणि या अनागतग्रह कहलाता है। सम, अतीत और अनागत ग्रहों में क्रमशः मध्य, द्रुत और विलंबित लय होता है। ___ लय का संबंध भावाभिव्यक्ति से है। धीमी या विलंबित लय दुःख और निराशा की द्योतक होती है, द्रुत गति वीरता व प्रेरणा की द्योतक है। विलम्बित लय में गहनता व व्यापकता है, जो दुःख व निराशा की पोषक है। विलंवित लय से द्रुत लय में प्रेरक शक्ति ज्यादा प्रतीत होती है। ६. निःश्वसितोच्छवसितसम-सांस लेने और छोड़ने के क्रम का अतिक्रमण न करते हुए गाया जाने वाला गीत । ७. संचार सम-सितार आदि के साथ गाया जाने वाला गीत । गीत का उच्छ्वास-काल (परिमाण-काल) का निर्णय करते हुए स्थानांग में बताया गया है जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका उच्छ्वास-काल होता है और उसके आकार तीन होते हैं-आदि में मृदु, मध्य में तीव्र और अन्त में मंद । लय, स्वर तथा मूर्च्छनाओं में बंधकर ध्वनि संगीत की सृष्टि करती है। जिसे ललितकलाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसको मानव जीवन एवं व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है । संगीत का सीधा संबंध मानव जीवन के भावात्मक स्तर से होता है। संगीत मानव को सच्चे रूप में प्रकट करता है। गीत का गान निर्दोष तथा गुणयुक्त होने के लिए निम्न दोषों का निराकरण आवश्यक माना गया है १. भीत-भयभीत होते हुए गाना। २. द्रुत-शीघ्रता से गाना । ३. ह्रस्व-शब्दों को लघु बनाकर गाना। ४. उत्ताल ताल से आगे पढ़कर या ताल के अनुसार न गाना । ५. काकस्वर-कौए की भांति कर्णपटु स्वर से गाना । ७. अनुनास-नाक से गाना । नवांगी टीकाकार अभयदेव के अनुसार इसका विवरण इस प्रकार है-- "भीतं त्रस्तमानसम् । द्रुतं त्वरितम् । रहस्यं ह्रस्व स्वरं लघुशब्दम् । उत्तालं अस्थानतालम् । काकस्वर अश्राव्य स्वरम् ।" अर्थात् भीत दोष वह है जिसमें गाने के समय' चित्त विक्षिप्त हो, द्रुत वह है जिससे गायन के अन्तर्गत अत्यधिक त्वरा हो, रहस्य में स्वरों तथा शब्दों का ह्रस्व तथा लघु उच्चारण होता है, उत्ताल से तात्पर्य तालहीनता से है, काकस्वर कर्कश तथा अश्राव्य स्वर के लिए संज्ञा है तथा आनुनासिक से तात्पर्य है स्वरोच्चारण में नासिका का प्रयोग करना । नारदीशिक्षा में गीत के दोषों एवं गुणों का सुन्दर विवेचन प्राप्त ३८२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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