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________________ भरत नाट्योक्त रोविन्दक और मंद्रक से नाम साम्य है । स्थानांग में चार प्रकार के वाद्यों का भी उल्लेख किया गया है१. तत - वीणा आदि । २. वितत - ढोल आदि । ३. घन - कांस्य ताल आदि । ४. शुषिर - बांसुरी आदि । १. तत—- इसका अर्थ है - तंत्रीयुक्त बाद्य । भरत ने ततवाद्यों में विपंची एवं चित्रा को प्रमुख तथा कच्छपी एवं घोषका को उनका अंगभूत माना है । ° आचार चूला तथा निशीथ में वीणा, विपंची, बद्धीसग, तुलय, पवण, तुंबवीणिया, ढंकुण और औड़य, ये वाद्य तत के अन्तर्गत गिनाए हैं । संगीत दामोदर में तत के २९ प्रकार गिनाए गए हैं । २. वितत - चर्म से आनद्ध वाद्यों को वितत कहा जाता है । गीत और वाद्य के साथ ताल एवं लय प्रदर्शनार्थ इन चर्यावनद्ध वाद्यों का प्रयोग किया जाता है । इनमें मृदंग, पवण, दर्दुर, भेरी, डिंडिम, मृदंग आदि मुख्य हैं । ये वाद्य कोमल भावनाओं का उद्दीपन करने के साथ-साथ वीरोचित उत्साह बढ़ाने में भी कार्यकर होते हैं । अतः इनका उपयोग धार्मिक समारम्भों तथा युद्धों में भी रहा है । १४ मुरज, पटह, ढक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, घण, पणव, सरुहा, लाव, झल्ली, दुक्कली, उमस, ढमुकी आदि को भी वितत के अर्न्तगन माना है ।" ३. धन- कांस्य आदि धातुओं से निर्मित वाद्य घन कहलाते हैं । करताल, कांस्यवन, नयघटा, घर्घर, पटवाद्य, मंजीर आदि इसके कई प्रकार हैं । ४. शुषिर - फूंक से बजाए जानवाले वाद्य । भरत मुनि ने इसके अंत - र्गत वंश को अंगभूत और शंख तथा डिक्किनी आदि वाद्यों को प्रत्यंग माना है। यह माना जाता था कि वंशवादक को गीत युक्त तथा बल संपन्न ओर दृढानिल होना चाहिए । न्यूनता होती है वह शुषिर वाद्यों को बजाने में सफल नहीं हो सकता । स्थानांग में चार प्रकार के नाट्यों का नामोल्लेख भी प्राप्त होता है- अंचित २. रिभित ३. आरभट ४. भषोल । नाट्यशास्त्र में १०८ करण माने जाते हैं । करण का अर्थ हैं - अंग तथा प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ करना । उपरोक्त वर्णित नाट्य के प्रकार इन्हीं करणों के भेद हैं । " संगीत का शरीर, मन एवं आत्मा से अटूट संबंध है । संगीत में आनन्द प्रदान करने की शक्ति है संगीत को चिकित्सा पद्धति के रूप में भी स्वीकार किया गया है । क्योंकि संगीत में उत्तेजना कम करने की शक्ति और साथ ही है । रूचि के अनुसार रोगी को ध्रुपद' 'धमार' । खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International संबंधी सभी गुणों से जिसमें प्राणशक्ति की अवधान हटाने की शक्ति, अति शान्ति प्रदान करने की शक्ति या 'खयाल' गायन सुनवाया For Private & Personal Use Only ३८५ www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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