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'शीघ्र सहोदर साथ में मैं सद्गुरु रा चरण-सरोज जुहारूं रे नयना नन्दन वन्दना छोगा नन्दन नै कर रूं-रूं ठारू रे ।३१
और उस अवस्था में पूज्य कालगणि के मुख से मुखरित होता यह बिम्ब भी उस प्रतिभाशाली बालक को प्रौढ़ता प्रदान कर देता है।
वय बालक प्रतिभा-बले प्रगट प्रोढ़ कहिलावै-विभव बड़ावै रे प्रवया शिशु सवया बणै,
जो विवेक-बल वृद्धभाव नहिं पावै रे ।३२
योग्य व अनुकूल शिष्य को योग्यतम बनाने का भी गुरु का अपना ढंग होता है और इसीलिए-शारीरिक अस्वस्थता की अवस्था में भी तुलसी को प्रत्यक्ष सेवा का विशेष अवसर न मिला। अब जब रात्रि में गुरु कालू ने तुलसी को अपने पास बुलाया है व अत्यन्त अनुग्रह पूर्वक प्रिय शिष्य को पाथेय प्रदान कर रहे हैं तो शिष्य भी अपने मन को वहां खोल कर रख दे---- महज है । प्रत्यक्ष सेवा कार्य से वंचित रहने के कारण मुनि तुलसी के मन में शिकायत भी है। गुरु से शिकायत करता बाल मुनि का यह स्वरूप निसर्गतः ही सौम्य प्रतीत हो रहा है।
पांच मिनिट ही पास में रे बैठ्यो, दियो उठाण ।
बखत गमा मत कीमती रे, सीख, चितार सुजाण ।। अब प्रसाद मुझ पर करो रे, चाकर पद-रज जाण ।
द्यो चरणा री चाकरी रे, अवसर रो अहसाण ||35
गुरु के साथ जुड़े अद्वय के तारों से ही वस्तुतः शिकायती स्वर में आत्मीय निवेदन मुखर हुआ है।
गुरु की पूरी महर-नजर से मुनि तुलसी संरक्षित हैं। भाद्रव शुक्ला तृतीया का दिन आता है और कालगणि अपनी नई चौकड़ी मुल-मुल की चद्दर उतार के मुनि तुलसी को ओढ़ा देते हैं । युवराज पद प्रकाशित होते ही सारा माहौल खुशियों से झूम उठता है । पर उस समय युवराज तुलसी की क्या मनः स्थिति हैं उसी को प्रकट करता है यह बिम्बन ।
'जल बिन्दू इन्दूज्ज्वल मानो शुक्तिज आज सुहायो। मृन्मय पिण्ड अखण्ड पलक में कामकुम्भ कहिवायो । साधारण पाषाण शिल्पि कर, दिव्य देव पद पायो । किं वा कुसुम, सुषमता योगे, महिपति-मुकुट मंढायो रे ।।३४
और अचानक इतना भारी परिवर्तन हो जाने से अब हर कार्य में असमञ्जस की स्थिति उत्पन्न होना भी सहज ही है--स्वयं की असमञ्जसता
खंड १९, अंक ४
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