________________
'देखूं बलि - बलि भाज' में साकार एक बालक का चेहरा घूम जाता है जो अपनी प्रबल इच्छा को रोकने में असमर्थ है, और बार-बार अपने प्रिय गुरु के दर्शन को दौड़ रहा है ।
बालक के मन में जहां हर नई चीज को देख हर नए व्यक्ति को देख एक जिज्ञासा का भाव उभर आता है और येन-केन प्रकारेण वह अपनी जिज्ञासा को समाधान देना चाहता है तो दूसरी और उसकी जिज्ञासाओं में ही उसका भावी भी छुपा रहता है । बालक तुलसी अपनी मां से पूछ रहा है और भावी का एक चित्र भी झलक रहा है
-
'कुण होसी पाछे म पूजी म्हाराज रै, उत्सुकता आ छँ मन बतादे मावड़ी ।
१२८
और इस उत्सुकता के साथ ही संकल्प की धुन भी भीतर जाग जाती सर्वस्व मां ही होती है ।
है । सर्व विदित है बालक के लिए तो अपना इसीलिए फिर वे अपनी मां से ही कह रहे हैं
'भणं चरण में बैठ, छोटो सो चेलो बणूं, करूं स्व जीवन भेंट, मां ! मन अन्तर भावना ।"
होनहार माडला बालक जब वीरता के साथ महापथ का पथिक बनने को उद्यत हो जाता है तो उसके ओछव मोछव में भी एक विशेष वात्सल्य की भावना उमड़ उमड़ आती है । बालक तुलसी दीक्षा को तैयार हो गए । और पूर्व सन्ध्या चतुर्थी के दिन का यह वैरागी तुलसी का सलोना मुखड़ा सुकुमार बाल सामने आ जाता है ।
'मेंहदी मांडी, कर चरणां में, माता कोड पुरायो जी। पो बिद चौथ रात नै मुझने कंबल ओढ़ सुलायो जी।
बालक तुलसी यद्यपि अवस्था में बालक है पर विकसित समझ के इस धनी को अनुभव वृद्ध बालक कहना ही अधिक रुचता है क्योंकि कल्पकल्प का ऐसा विवेक कम से कम एक बालक तो कभी नहीं दे सकता । वही चतुथीं की आधी रात्रि और मध्य नींद से उठाने पर भी पूरी जागरूकता से भाईजी के सामने प्रस्फुटित होता यह अनुभवी वृद्ध का स्वर -
भाईजी री अजब बात सुन हांसी रुकी न म्हारी जी । नोट 'परिग्रह' ही है बन्धव ! नहि कल्पे निरधारी रे ||
R
त्रयोदशी की रात्रि गुरुदेव भयंकर वेदन- ग्रस्त अवस्था में तुलसी को याद फरमाते हैं । भाईजी महाराज बुलाने आते हैं । तुलसी निहाल हो जाते हैं । कालूगणि के पास पहुंचकर मुनि तुलसी बार-बार वंदना करते हुए मानो परम तृप्ति को पा लेना चाहते हैं
३६०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसी प्रज्ञा
www.jainelibrary.org