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________________ राहु ग्रसित चांद सी छाया आ काया कोई माया पर दीप्त होता आत्मबल ब्रह्मचर्यं रो ओज, मनोजां की सी मूरत मनहारी, श्वेत केश सिर, श्वेत वेष, साकार सुकृत सुषमा सारी । कालु ललित ललाट घाट, महिमा विराट है मुखड़ारी, चलचलाट कर चेहरो चलर्क, पलकें प्रबल प्रभाधारी ।। शारीरिक वेदना की रफ्तार समय के साथ तीव्र होती जा रही थी । उस वेदना से गर्भित एक हलका सा सजीव चित्र - २५ " कब ही आंख्यां खोलें बोले होले सी आवाज, कब ही पोढे कबहि बिराजे वेदन वे अन्दाज । १२६ आखिर वेदना की भी एक सीमा होती है- एक क्षण अया और वेदना समाधिस्थ हो गई । शरीर केवल शरीर बन गया । 1 सामान्यतया देखा गया है । कवि काव्य का सर्जन करता है, और काव्यगत पात्रों के माध्यम से अपने अन्तरतम को काव्य में ढाल देता है । पर ऐसा तो कहीं विरल ही होता होगा कि कवि स्वयं अपने को अपने काव्य में उतार दें । इस कालुयशोविलास के कवयिता हैं - आचार्य तुलसी । काव्य का प्रमुख पात्र हैं पूज्य कालुगण । अब कवि के सामने समस्या यह थी कि अष्टमाचार्य कालुगण ने जिन्हें अपना सम्पूर्ण उत्तरदायित्व का भार सौंपा। उनको काव्य में उतारे बिना कालुगण का भी चित्र पूरा कैसे हो सकता था ? इसीलिए इस काव्य में दूसरा महत्त्वपूर्ण मानवीय बिम्ब उभरता है - स्वयं आचार्य तुलसी का । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजो कई बार फरमाते हैं साधु तो सरल ही होता है - अर्थात् सरलता, निश्छलता, भोला-भालापन उसकी सम्पदा है । इस काव्य में भी बालक तुलसी का प्रत्यक्ष रूप में चेहरा पूरी तरह से भोलापन लिए अवतरित होता है । प्रथम साथ ही यह निश्छल भोला चेहरा बड़ी मायुषी के साथ अपनी रहा है । "मां ओ तन सुकुमार, चरण, कमल कोमल अतुल, पय अलबाण विहार, परम पूज्य क्यूं कर करें ?" मैं पूछ्यो ए मां ! आं पूजी महाराज रै, चेहरे री आभा पलपलाट पल-पल करें । मां ! ए मां ! म्हाराज लागे घणां सुहावणां, देखूं बलि- बलि भाज- तो पिण मन तिरपत नहीं । * खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only पहला - पहला गुरु दर्शन के मां से पूछ ३५९ www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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