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"संयम रंगे रंगिणि चंगिणि, सज्ज मतंगिणि चाल रे ।
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शील सुरंगिणि, उज्ज्वल अंगिणि, लंघिणि जंग जंबाल रे । साधु चर्या का एक अनिवार्य अंग है विहार । विहार के समय का एक परिदृश्य | आचार्य अपने शिष्य सम्पदा के साथ - वस्तुतः विहार की झांकी आंखों के सामने ला देता है ।
"खांधे धर-धर नां गला, नान्हा मोटा संत,
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मुनि-पति मुख आगल खड्या हियड़े अति हुलसंत ।'
अनुशासन और अनुशास्ता - स्वस्थ व्यस्थता के प्राण है । एक अनुशास्ता को आकार देते हैं ये शब्द ---
"लाखां दीया झगमगें, ले बाती इकलोत,
सारां री सारै गरज, एक तपन उद्योत । २०
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प्रकाश का वह यात्री सतत प्रकाश वितरण में संलग्न था । पर शरीर एक व्रण उठा और झलकती है - इस
भी अपना धर्म निभा रहा था। बाएं हाथ की अंगुली में वेदना ने जैसे उसी में आकार ले लिया । व्रण की स्थिति शब्द चित्र के माध्यम से
"चको अति अबखो चले रे, सबको दिल बेचैन, उच्छृंखल, खल आग्रही रे, सुणै न मान एन, नयण न निश भर नींदड़ी रे, दिन में रुचै न आ'र, चलणो, सोणो बैठणो रे सारा बणग्या भार । २१
चिकित्सक से चिकित्सा लेने का विशेष प्रयोग उस समय तक संघ के व्यवहार में न आया था । मगन मुनि तैयार हो गए ओप्रेशन करने के लिए । उसी द्रावक स्थिति का एक परिदृश्य --
"पीप पिचरकी चली छलकती, रालो कालो काथ, सहनशीलता देख सुगुरु की, स्तब्ध रह्यो सहु साथ, पींच-पींचकर खींच-खींचकर, वण निर्घृण निष्णात, पीप निकाल्यो घाव उजाल्यो, मगन रु कुन्दन भ्रात । घाव की सफाई करते समय पीप (पीव) भी निकालना पड़ता । वेदना की विकरालता प्रकटित होती हैं। आत्मा व शरीर का अपना-अपना धर्म है, पर स्वभाव सभ्यता का दिग्दर्शन यह उदाहरण भी अनूठा है ।
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"चूंथ चूंथ चूंथी स्यूं चिथड़ा, काठै सन्त सुजात, ज्यू सद्गुरु समकित र स्हारे कार्ट गूढ़ मिथ्यात् ।
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पर शरीर की वेदना में भी आत्म की ओजस्विता, तेजस्विता और अधिक प्रखर हो उठी । क्षीण होता शरीर बल आत्म बल को और अधिक बलवान् बना रहा था । वेदना के पैर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे और काया का रूप ---
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तुलसी प्रज्ञा
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